कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है। कृषि खेती भारतीय आबादी का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा है। देश में करोड़ों लोगों को भोजन और आजीविका कृषि से ही प्राप्त होती है। भारत में प्रचीन काल से ही कृषि होती आ रही है। भारतीय कृषि में प्रचीन काल से कई पद्धतियों का इस्तेमाल कर खेती होती आ रही है। इन पद्धतियों के शुरुआती साक्ष्य सिंधु घाटी सभ्यता के स्थलों, जैसे कि हरियाणा में भिरड़ाणा और राखीगढ़ी, गुजरात में धोलावीरा में आज भी पाए जाते हैं। विविधता भारतीय जीवन शैली के विभिन्न क्षेत्रों में प्रसिद्ध रूप से मनाई जाती है और कृषि कोई अपवाद नहीं है। यहां कई सब्जियां मचान पर उगाई जाती हैं, यहां के स्थानीय लोग ’पंडाल’ कहते है। यह पंडाल (मचान) खेती भारत के कृषि इतिहास में 14 वीं और 15 वीं शताब्दी से चली आ रही है। वर्तमान समय में कृषि क्षेत्र कई किसान ’पंडाल कहे जाने वाले इन ट्रेलीज या मचानों पर सब्जियों की खेती में परवल, लौकी, करेला, चौड़ी फलियां, मिर्च, तुरई, बैंगन और टमाटर आदि की खेती कर अच्छा मुनाफा भी कमा रहे है, क्योंकि यह खेती बहुत ही आसान है और इस खेती में बहुत कम लागत में अधिक पैदावार के साथ बढि़या मुनाफा मिलता है। ट्रेलिज के स्थानीय नाम उतने ही विविध हैं जितने कि भारत में उन पर उगाई जाने वाली सब्जियों की संख्या। आज के युग में यदि आप भी सब्जियों के क्षेत्र में एक सफल किसान बनना चाहते हैं, तो आप सब्जियों की खेती में मचान या ट्रेलीज विधि का प्रयोग करके एक सफल किसान बन सकते है। ट्रैक्टरगुरू के इस लेख में हम आपको ट्रेलिज या मचान खेती विधि के विविध नाम और उसके लाभ के बारे में जानकारी देंगे।
मचान या ट्रेलीज/स्टेकिंग विधि में खेत में जाल लगाकर उस पर सब्जियों की बेलों को चढ़ाने को कहते हैं। इस विधि में खेती के लिए ज्यादा धन खर्च करने की भी जरूरत नहीं पड़ती है। इस तकनीक के लिए बांस व लोहे के डंडे, पतले तार और रस्सी की आवश्यकता होती है। इन सब सामानों से किसान के द्वारा खेती के लिए जाल बनाया जाता है। इस पर लताएं फैल जाती है। इस पर उगाई सब्जियों की पैदावार जमीन के संपर्क से दूर रही है और सड़ने से बचती है। मचान पर उगाई सब्जी और जमीन पर उगाई सब्जी की गुणवत्ता में काफी अंतर होता है। इस पर करेला, लौकी, मिर्च, बैंगन और टमाटर सहित कई अन्य सब्जियों की खेती कर सकते हैं। देश की कई राज्य सरकारें इस विधि के लिए सब्सिडी भी प्रदान करती है।
कृषि जानकारों का कहना है कि मचान या ट्रेलीज/स्टेकिंग विधि से सब्जियों की खेती में फसल में सड़न नहीं होती, क्योंकि फसल जमीन पर रहने की बजाए ऊपर लटकी रहती है और लटकने के कारण लम्बा आकर भी लेते है। लौकी, तोरई, करेला जैसी फसलों की लम्बाई ज्यादा और मोटाई बेहद कम होती है। पूरा फल का रंग भी एक समान एवं चमक दार होता है। फसलों की पैदावार अधिक और अच्छी मिलती है और किसानों को अच्छा खासा मुनाफा मिलता है।
स्टैकिंग तकनीक से सब्जियों की फसल काफी अच्छी मिलती है, किसानों के लिए स्टैकिंग तकनीक का उपयोग काफी लाभकारी साबित हुआ है। इस विधि में नालियों के मध्य बेल फेलने वाली जगह पर मचान बनाया जाता है। दोनों तरफ लकड़ी, बांस या लोहे को सीधी गाढकर तार या प्लास्टिक की मजबूत चीप से जाल बना दिया जाता है ताकि बेलें फैल सकें। इनकी तुडाई मचान के नीचे से बडी आसानी से हो जाती है। सब्जियों की फसल को ट्रेलाइज करने या स्टेक करने से फसल के फलों की गुणवत्ता में प्रभावी रूप से सुधार होता है। ट्रेलीज या मचान/स्टेकिंग से पौधों और फसलों को सूर्य का प्रकाश अच्छी तरह मिल पाता है। जिससें परागणकर्ताओं को क्षेत्र में आसानी से परागण करने की अनुमति देता है। कवक रोगों के संपर्क को कम करता है, कीड़ों और कीटों को रोकता है। छोटे स्थानों में अधिक फसलें प्राप्त होती है।
कृषि क्षेत्र में मचान या ट्रेलाइजिंग/स्टेकिंग तकनीक का प्रयोग सिंधु घाटी सभ्यता काल से होता आ रहा है। इस दौर में कृषि क्षेत्र में किसान इस तकनीक से ही सब्जियों और फलों की खेती करते है। क्योकि यह तकनीक बहुत ही आसान है और इस तकनीक के प्रयोग में बहुत कम सामान का प्रयोग होता है। इस तकनीक के लिए सामान्य रूप से दो प्रमुख प्रकार की मचान खेती के निश्चित प्रकार एवं पोर्टेबल और अस्थायी संरचनाओं का उपयोग किया जाता है।
निश्चित प्रकार की संरचनाएं - ये संरचनाएं स्थायी प्रकृति की हैं और इन्हें गड्ढों को खोदकर और लकड़ी, बांस व लोहे के डंडे के खंभों को लगाकर बनाया जाता है। इस तकनीक में पतले तार और रस्सी की मदद से जाल बनाया जाता है। इस पर पौधों की लताएं फैल जाती है। यह संरचाना खेत में करीब 3-4 साल तक रहने की उम्मीद होती है। इन निश्चित प्रकार की संरचानाएं करेला, लौकी, मिर्च, बैंगन और टमाटर सहित कई अन्य सब्जियों की खेती में अधिक पैदावार के लिए प्रयोग कर सकते है। ये हैं विभिन्न टाइप की होती है जैसे :-
फ्लैट रूफ ट्रेलिज- इस सिस्टम में वर्टिकल ग्रो सिस्टम के अलावा बस एक स्टेप अरिरिक्त किया जाता है। फ्लैट रूफ-टाइप दो आसन्न पंक्तियों के शीर्ष पर क्षैतिज स्थिति में पंक्तियों पर खंभे लगाकर बनाए जाते हैं। क्षैतिज खंभे लगाने की औसत ऊंचाई 1.5-2.1 मीटर होती है। परवल और पान के पत्ते उगाने के लिए यह सिस्टम का उपयोग किया जाता है।
पिच्ड रूफ ट्रेलिज - इस ट्रेलीज की छत ओरिएंटेशन में सपाट नहीं है बल्कि इसके बजाय इसे खड़ा या तिरछा किया जाता हैं। पूरी संरचना एक उलटा वी बनाती है। यह ढ़ाचा फसल को आसानी से फैलने के लिए बड़़ा क्षेत्र प्रदान करती हैं।
वर्टिकल ग्रोथ ट्रेलिज - वर्टिकल ग्रोथ ट्रेलिज/स्टेकिंग खेती सबसे ज्यादा करेले की खेती के लिए उपयुक्त मानी गई है। इस ढ़ाचे में लकड़ी, बांस व लोहे के डंडे के खंभों को उनके बीच एक पूर्व-निर्धारित समान दूरी पर लंबवत रूप से जमीन पर फिक्स किया जाता है।
पोर्टेबल और अस्थायी संरचनाएं - पोर्टेबल और अस्थायी संरचनाएं केवल खंभों का उपयोग करके बनाए जाते हैं, लेकिन खंभों को जमीन में नहीं गाड़ा जाता है. ये आसानी से हटाने योग्य, पोर्टेबल और कभी-कभी फिर से इस्तेमाल करने लायक भी होते हैं। पोर्टेबल और अस्थायी प्रकार की संरचनाएं ऊर्ध्वाधर खंभे जमीन में नहीं गाड़े जाते हैं। इन ढांचों को संतुलित करने के लिए खंभों के सभी किनारों पर जस्ती लोहे के तार का उपयोग किया जाता है।
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