Mushroom Cultivation Training : देश में मशरूम की मांग और खेती का रकबा तेजी से बढ़ता जा रहा है, जिससे किसानों और बेरोजगार युवाओं के लिए मशरूम उत्पादन (Mushroom Production) आमदनी का एक जबरदस्त साधन बनकर उभरा है। क्योंकि स्वास्थ्य की दृष्टि से मशरूम को पोषक तत्वों से भरपूर एक सुपर फूड माना गया है। यह एक फंगी कवक है, इसकी खेती अनाज फसलों के अपशिष्टों और कोकोपिट में की जा सकती है। किसान बहुत ही कम क्षेत्र में मशरूम का उत्पादन कर अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं। हालांकि, मशरूम की खेती (Mushroom Farming) शुरू करने से पहले अगर आप इसके उत्पादन की सही तकनीक जान लेंगे, तो इसे उगाने में कोई दिक्कत नहीं होगी तथा इसका रकबा भी बढ़ा पाएंगे। क्योंकि अक्सर देखा गया है कि किसान मशरूम की खेती (Mushroom Farming) शुरू तो करते हैं, लेकिन तकनीकी जानकारी के अभाव में उन्हें उत्पादन में भारी नुकसान उठाना पड़ जाता है। ऐसे में किसानों के मन में यह सवाल उठता है कि मशरूम उत्पादन का प्रशिक्षण कहां से प्राप्त किया जाए। मशरूम उत्पादकों के इसी सवाल का जवाब इस पोस्ट में है। क्योंकि इसके माध्यम से हम हरियाणा के चौधरी चरण सिंह कृषि विश्वविद्यालय (एचएयू) हिसार में आयोजित मशरूम उत्पादन तकनीक विषय पर तीन दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम (training program) के बारे में जानकारी देंगे। अगर आप मशरूम की खेती कर अच्छा मुनाफा कमाना चाहते हैं, तो तुरंत इस कार्यक्रम में अपना पंजीकरण करवाकर तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त कर सकते हैं।
चौधरी चरण सिंह कृषि विश्वविद्यालय (हिसार) हरियाणा के सायना नेहवाल कृषि प्रौद्योगिकी, प्रशिक्षण एवं शिक्षा संस्थान की ओर से मशरूम उत्पादन तकनीक विषय पर 3 से 5 अप्रैल, 2024 तक तीन दिवसीय प्रशिक्षण का आयोजन किया जा रहा है। इस प्रशिक्षण में सफेद बटन मशरूम, ओयस्टर मशरूम, दुधिया मशरूम, शीटाके मशरूम, कीड़ा जड़ी मशरूम इत्यादि पर संपूर्ण जानकारी दी जाएगी। इसके अतिरिक्त, मशरूम के मूल्य संवर्धित उत्पाद तैयार करना, मार्केटिंग एवं लाइसेंसिंग, मशरूम उत्पादन में मशीनीकरण, मशरूम का स्पान/बीज तैयार करना, मौसमी और वातानुकूलित नियंत्रण में विभिन्न मशरूम को उगाने, मशरूम की जैविक और अजैविक समस्याएं और उनके निदान विषय पर विस्तार से चर्चा की जाएगी।
सायना नेहवाल कृषि प्रोद्योगिकी, प्रशिक्षण एवं शिक्षा संस्थान के सह-निदेशक (प्रशिक्षण) डॉ. अशोक गोदारा ने इस पर जानकारी देते हुए बताया कि संस्थान में मशरूम उत्पादन तकनीक पर तीन दिवसीय प्रशिक्षण का आयोजन किया जा रहा है। सफेद बटन मशरूम, ओयस्टर मशरूम, दुधिया मशरूम, शीटाके मशरूम, कीड़ा जड़ी मशरूम उत्पादन सहित अन्य गतिविधियों पर प्रशिक्षण दिया जाएगा। संस्थान की ओर से किसानों और बेरोजगार युवाओं को यह प्रशिक्षण नि:शुल्क दिया जा रहा है। इस प्रशिक्षण में देश एवं प्रदेश से किसी भी वर्ग, आयु के इच्छुक महिला व पुरुष भाग ले सकते हैं। प्रतिभागियों को संस्थान की ओर से प्रमाण-पत्र दिए जाएंगे।
संस्थान के सह-निदेशक (प्रशिक्षण) डॉ. गोदारा ने कहा कि मशरूम एक स्वादिष्ट और संतुलित हेल्दी फूड है इसमें कई औषधीय गुण भी मौजूद होते हैं, जो मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए बहुत उपयोगी होते हैं। मशरूम उत्पादन एक ऐसा कृषि व्यवसाय है, जिसे कम से कम लागत खर्च पर शुरू किया जा सकता है और भूमिहीन, शिक्षित व अशिक्षित युवक-युवतियां इसे स्व-रोजगार के रूप में अपनाकर स्वावलंबी बन सकते हैं। मशरूम की विभिन्न प्रजातियों के उत्पादन पर संस्थान में नि:शुल्क प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इच्छुक युवक व युवतियां प्रशिक्षण पंजीकरण के लिए सायना नेहवाल कृषि प्रौद्योगिकी, प्रशिक्षण एवं शिक्षा संस्थान में अपना पंजीकरण करवाकर प्रशिक्षण में भाग ले सकते हैं। संस्थान विश्विवद्यालय के गेट नंबर-3, लुदास रोड पर है। प्रशिक्षण में प्रवेश “पहले आओ-पहले पाओ” के आधार पर दिया जाएगा। पंजीकरण के लिए उम्मीदवारों को एक फोटो एवं आधार कार्ड की फोटो कॉपी साथ लेकर आना होगा।
हिसार स्थित चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय की तरफ से किसानों को कपास का उत्पादन बढ़ाने, उन्नत किस्म के बीजों व तकनीकी विषयों पर जानकारी देने के लिए विभिन्न प्रशिक्षण शिविर आयोजित किए गए। प्रशिक्षण शिविर में अनुसंधान निदेशक डॉ. जीतराम शर्मा ने किसानों को बताया कि गुलाबी सुंडी का प्रकोप खेतों में रखी हुई लकड़ियों तथा बनछटियों की वजह से फैलता है। इसलिए इनका उचित प्रबंधन किया जाना चाहिए। वहीं संस्थान के सह-निदेशक प्रशिक्षण ने बताया कि संस्थान द्वारा समय-समय पर विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण दिए जा रहे हैं।
कपास अनुभाग के प्रभारी डॉ. करमल सिंह ने राज्य में कपास उत्पादन के लिए किसानों को आवश्यक सस्य क्रियाओं से अवगत कराया। डॉ. करमल सिंह ने बताया कि बीटी नरमा के लिए शुद्ध नाइट्रोजन, शुद्ध फास्फोरस, शुद्ध पोटाश व जिंक सल्फेट क्रमश: 70:24 24:10 किलोग्राम प्रति एकड़ की सिफारिश की जाती है। उर्वरक की मात्रा मिट्टी की जांच के आधार पर तय की जानी चाहिए। 5-6 साल में एक बार गोबर/वर्मी कंपोस्ट की खाद डालनी चाहिए। प्रशिक्षण शिविर में किसानों को विश्वविद्यालय की ओर से उत्पादक सामग्री भी प्रदान की गई। इसके अलावा, कपास अनुभाग के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. सोमवीर ने कपास की मुख्य विशेषताओं व प्रजातियों के बारे में अवगत करवाया।
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