तितली मटर भारत में दलहनी फसलों में से एक है। इस फसल को व्यापारिक दलहनी फसल भी कहते हैं। इस फसल की खेती इसकी हरी फली के लिए की जाती है। इसकी हरी फलियां सब्जी बनाने और सूखी फलियां दालें बनाने के लिए प्रयोग की जाती हैं। भारत में मूल रूप से इस फसल की खेती कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, पंजाब, असम, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, बिहार और उड़ीसा की जाती है। पहले के समय में हरी मटर को केवल सीजन आने पर पर ही बाजारों में देखा जाता था, लेकिन अब बढ़ती टेक्नोलॉजी के चलते हरी मटर के दानो को निकाल कर उन्हें वैक्यूम कर फ्रोजन कर दिया जाता है। जिससे की हरी मटर पूरे साल भर मिल सकती है। वर्तमान समय में देश के किसान तितली मटर की खेती से लाखों के मुनाफे के साथ इस फसल उपयोग पशुओं के चारे रूप में भी कर रहे है। जिससे किसान भाई अधिक लाभ मिल रहा है। यदि आप भी मटर की खेती कर अच्छी कमाई और अपने पशुओं के लिए पौष्टिक चारा की उत्तम व्यवस्था करना चाहते है, तो इस पोस्ट को जरूर पढ़ें। आज ट्रैक्टरगुरु की इस पोस्ट में तितली मटर की खेती के बारे में सम्पूर्ण जानकारी को साझा किया जा रहा है। इस जानकारी से आप तितली मटर की उन्नत खेती कर अच्छी कमाई कर सकतें है
तितली मटर का वनस्पति नाम (क्लाइटोरिया टेर्नेटा एल.) है। यह एक दलहनी कुल के उप कुल पैपिलिओनेसी से है। यह प्रतिकूल जलवायु में लंबे समय तक जीवित रहने वाला बहुवर्षीय पौधा है। इसका जड़ तंत्र क्षैतिज प्रकार का होता है। तथा जड़ मोटी होती है। एवं भूमि में 2 मीटर से अधिक दूरी तक फैल जाती है। इसकी जड़ में राइजोबियम जीवाणु होते है, जो भूमि को उपजाऊ बनाने में सहायक होते है। यह शाकीय पौधा है जिसका तना खोखला होता है। इसकी पत्ती सेयुक्त होती है। इसके फूल पूर्ण एवं तितली के आकार के होते हैं। इसकी फली लम्बी, चपटी एवं अनेक बीजों वाली होती है। मटर के एक बीज का वजन 0.1 से 0.36 ग्राम होता है। तितली मटर में अनेक प्रकार के पोषक तत्व प्रटिन, फास्फोरन, कार्बोहाइड्रेट्स, विटामिन और आयरन की पर्याप्त मात्रा पायी जाती है। यह एक पोषक तत्वों की बहुत ही धनी सब्जी होती है। घर में आवश्यकता के लिए थोड़ी मात्रा में काम आने की पुष्टि से और व्यवहारिक दृष्टि से भी यह अत्यधिक लाभ पहुंचाने वाली फसल है।
विश्व में सबसे अधिक मटर की खेती रुस में की जाती है। विश्व के कुल उत्पादन की आधे से अधिक मटर रूस में उगाई जाती है। भारत, रूमानिया, अमेरिका, हंगरी, चौकोस्लोवाकिया, जर्मनी, कोलम्बिया, पौलेण्ड व स्पेन आदि देश मटर उत्पादक है। विश्व में लगभग 68 लाख हेक्टेयर भूमि में मटर की खेती की जाती है। विश्व में मटर की खेती की औसत उपज 9.22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। भारत में उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, राजस्थान, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल मटर की खेती करने वाले प्रमुख प्रांत हैं। उत्तर प्रदेश में मटर की खेती मुख्यतः पश्चिमी तथा पूर्वी क्षेत्रों, विशेष रुप से आगरा, गोरखपुर व फैजाबाद क्षेत्रों में की जाती है।
तितली मटर संसार के उष्णकटिबंधीय और उपोष्ण कटिबंधीय देशों में व्यापक रूप से फैला हुआ है। परन्तु इसकी व्यापक रूप से खेती दक्षिण और मध्य अमेरिका, पूर्व और पश्चिम इंडीज, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, चीन और भारत में की जाती है। तितली मटर का उत्पत्ति स्थान एशिया के उष्णकटिबंधीय क्षेत्र एवं अफ्रीका को माना जाता है, परन्तु दुनिया भर में इसके व्यापक प्राकृतिककरण के कारण इसकी उत्पत्ति अस्पष्ट है।
तितली मटर बहुउद्देशीय दलहनी कुल का पौधा है इसका चारा पशु पोषण के हिसाब से अन्य दलहनी कुल के पौधों की तुलना में अधिक पौष्टिक, स्वादिष्ट एवं पाचनशील होता है। जिस वजह से सभी प्रकार के पशु इसके चारे को बड़े ही चाव से खाते है। तितली मटर का तना बहुत पतला एवं मुलायम होता है, एवं इसमें पत्तियाँ चौड़़ी एवं अधिक संख्या में होती है जिस कारण इसका चारा ’हे’ एवं ’साइलेज’ बनाने के लिए उपयुक्त माना गया है। इसके चारे में सभी पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में पाये जाते है। इसके चारे में पोषक मापन प्रोटीन 19 से 23 प्रतिशत, क्रूड फाइबर 29 से 38 प्रतिशत , ईथर एक्सट्रेक्ट 3.4 से 4.4 प्रतिशत, एनडीएफ 42 से 54 प्रतिशत, एडीएफ 38 से 47 प्रतिशत, फाइबर 21 से 29 प्रतिश लिगनिन 14 से 16 प्रतिशत, एवं पाचन शक्ति 60 से 75 प्रतिशत होता है। अनुकूल परिस्थिितियों में तितली मटर से लगभग 10 टन प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष तक सुखा चारा मिल जाता है।
इसकी फसल के लिए नम तथा ठंडी जलवायु की आवश्यकता होती है। देश में अधिकांश स्थानों पर मटर की फसल रबी की ऋतु में गई जाती है। इसकी बीज अंकुरण के लिये औसत 20 से 22 डिग्री सेल्सियस और अच्छी वृद्धि तथा पौधों के विकास के लिये 10 से 18 डिग्री सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है। यदि फलियों के निर्माण के समय गर्म या शुष्क मौसम हो जाये तो मटर के गुणो एवं उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उन सभी स्थानों पर जहां वार्षिक वर्षा 60 से 80 सेंटीमीटर तक होती है। मटर की फसल सफलता पूर्वक उगाई जा सकती है। मटर के वृद्धि काल में अधिक वर्षा का होना अत्यंत हानिकारक होता है।
तितली मटर की फसल रबी सीजन की है। इसको विभिन्न प्रकार की मिट्टी जैसे रेतीली मिट्टी से लेकर गहरी जलोढ़ दोमट एवं भारी काली मिट्टी जिनका पीएच मान 4.7 से 8.5 के मध्य है, उपयुक्त है एवं यह मध्य खारी मिट्टीयों के प्रति सहिष्णु है। तितली मटर का पौधा जल मग्र की स्थिति के प्रति अति संवेदनशील होता है। इसकी खेती के लिए जलनिकास वाली मिट्टी उपयुक्त होती है।
तितली मटर की खेती से अच्छी पैदावार लेने के लिए खेत को तैयार किया जाता है। खरीफ ऋतु की फसल की कटाई के बाद सीड बैड तैयार करने के लिए हल से 1-2 जोताई कर खेत की मिट्टी को भुरभुरा बना लें। इससे खेत में मौजूद पुरानी फसल के अवशेष पूरी तरह से नष्ट हो जाते है। खेत की जुताई के बाद उसे खेत में 10 से 15 टन पुरानी गोबर की खाद को प्रति हेक्टेयर के हिसाब से दे। इसे बाद 2 से 3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करें। प्रत्येक जुताई के बाद खेत में पाटा चलाना आवश्यक है, जिससे ढेले टूट जाते हैं तथा भूमि में नमी का संरक्षण होता है। बुवाई के समय खेत में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है।
तितली मटर के बीजो की रोपाई बीज के रूप में की जाती है। एक हेक्टेयर (शुद्ध फसल) के खेत में तकरीबन 20 से 25 किलोग्राम, 10से 15 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर (मिश्रित फसल) के खेत में, 4 से 5 किलों बीज प्रति हेक्टेयर (स्थायी चारागाह) एवं 8 से 10 किलो बीज प्रति हेक्टेयर (अल्पावधि चरण चारागाह) के खेत के लिए पर्याप्त है। इन बीजो को खेत में लगाने से पहले उन्हें राइजोबियम की उचित मात्रा से उपचारित कर लिया जाता है। इसके अतिरिक्त थीरम या कार्बेन्डाजिम (बाविस्टिन) 1 से 2 ग्राम अथवा थायरम 2.5 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करके। इसके बाद राइजोबियम कल्चर से उपचारित करके बोना चाहिए।
तितली मटर के बीजो की रोपाई के लिए ड्रिल विधि का इस्तेमाल सबसे उपयुक्त माना जाता है। इसके लिए खेत में पंक्तियों को तैयार कर लिया जाता है, यह पंक्तियां एक फीट की दूरी रखते हुए तैयार की जाती है, इन पंक्तियों में बीजो को 5 से 7 सेन्टीमीटर की दूरी पर लगाया जाता है। बीज की गहराई 2.5 से 3 सेन्टीमीटर रखनी चाहिए। मटर के बीज अगेती और पछेती किस्मों के आधार पर अलग-अलग समय पर लगाए जाते हैं। अगेती किस्म की रोपाई के लिए अक्टूबर से नवंबर का महीना सबसे उपयुक्त माना जाता है, जबकि पछेती किस्मों के लिए बीज की रोपाई नवंबर माह के अंत में की जाती है।
तितली मटर की अच्छी पैदावार के लिए मटर किस्मों के आधार पर खाद एवं उर्वरक देना चाहिए। मटर की उँचाई वाली किस्मों के लिए नत्रजन की मात्रा 20 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर व बोनी किस्मों के लिए 40 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर आधार उर्वरक के रूप में देना चाहिए। फास्फोरस व पोटाश की मात्रा को भी आधार उर्वरक के रूप में मिटटी परिक्षण के आधार पर देना चाहिए। इसके बाद 30 से 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर फास्फोरस प्रति वर्ष की दर से देना चाहिए।
मटर की देशी व उन्नतशील जातियों में दो सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। पहली सिंचाई फूल निकलते समय बोने के 45 दिन बाद व दूसरी सिंचाई आवश्यकता पड़ने पर फली बनते समय, बोने के 60 दिन बाद करते हैं। सिंचाई सदैव हल्की करनी चाहिए। मटर की फसल की बुवाई के 35-40 दिन तक फसल को खरपतवारों से बचाना अति आवश्यक होता है। एक या दो निराई बोने के 30-35 दिन बाद करनी चाहिए। खरपतवार नियंत्रण करने के लिए 1 किग्रा. फ्लुक्लोरेलिन ( बेसालीन ) का 800-1000 ली. पानी में घोल बनाकर, फसल के अंकुरण से पहले, एक हेक्टेयर में छिड़ककर नम मिट्टी में 4-5 सेंमी. गहरे तक हैरो या कल्टीवेटर की सहायता से मिला देना चाहिए।
तितली मटर सब्जी के लिए बोई गई फसल जनवरी के मध्य से फरवरी के अंत तक फलियां देती है। इन फलियों को 10-12 दिन के अंतर पर, तीन-चार बार में तोड़ते हैं। अगेती जातियां, जैसे अर्ली दिसंबर, दिसंबर के अंत तक फलियां देने लगती है। फलियों को सब्जियों के लिए तोड़ते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि फलियों में दाने पूर्णतया भर गए हो और फलियों के छिलके का रंग हरा हो। छिलके का रंग पीला पड़ने पर बाजार में फलियों की कीमत कम मिलती है। दाने के लिए बोई गई फसल सामान्य अवस्थाओं में 115-125 दिन में पककर तैयार हो जाती है। फसल मार्च व अप्रैल के प्रारंभ तक, बोने के समय के अनुसार व जलवायु संबंधी कारकों के प्रभाव के कारण काट ली जाती हैं। एक सप्ताह तक पौधों को सुखाकर बैलों को उस पर चलाकर मडाई का कार्य पूरा करते हैं। बीज को भंडार में रखते समय 3-4 दिन तक सुखाते हैं जिससे कि दानों में नमी की प्रतिशत 10-12 तक रह जाए। मटर की फसल से हरी फलियों की पैदावार 80-120 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त हो जाती है। फलियां तोड़ने के पश्चात 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हरा चारा प्राप्त हो जाता है। दाने की औसत उपज 15-22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त हो जाती है। भूसे की उपज 50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त हो जाती है।
भारत में मटर की खेती मुख्य रूप से उत्तर भारत के मैदानी और पहाड़ी इलाकों में की जाती है। मटर की खेती के लिए सर्दी का मौसम उपयुक्त माना जाता है। पहाड़ी इलाकों में इसकी खेती गर्मियों और पतझड़ के मौसम में की जाती है। वर्तमान में मटर की काफी उन्नत किस्में बाजार में मौजूद है। इन उन्नत किस्मों का उचित चयन कर किसान भाई अच्छी पैदावार ले सकतें है। मटर की उन्नत किस्में निम्न प्रकार से है।
पूसा प्रगति
जवाहर मटर 1
काशी उदय
लिंकन
आर्केल
काशी शक्ति
पंत मटर 155.
अर्ली बैजर
आजाद मटर 1.
काशी नंदिनी
आजाद मटर 3
जवाहर मटर
एन पी 29
अर्ली दिसंबर
काशी अगेती
असौजी
बोनविले
टा 19
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