Goat Farming : छोटी जोत वाले किसानों के लिए बकरी पालन आजीविका का एक महत्वपूर्ण साधन है। साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर सृजन करने में बकरी पालन एक बड़ी भूमिका भी निभा रहा है। अधिक से अधिक किसान बकरी पालन से जुड़े, इसके लिए केंद्र एवं राज्य की सरकारें विभिन्न योजनाओं के माध्यम से बकरी पालन को प्रोत्साहित भी कर रही है। बकरी पालन को सफलता से किया जा सके इसके लिए भेड़-बकरी प्रशिक्षण केंद्रों (Training Centers) पर किसानों को आवास, आहार की व्यवस्था के साथ बकरी पालन का निःशुल्क प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है। बकरी पालन (Goat Farming) से बेहतर मुनाफा तब ही लिया जा सकता है जब बकरी पालन पालन के लिए शेड निर्माण प्लान से किया जाए और, शेड के आस-पास के क्षेत्र में पानी और हरे चारे की अच्छी व्यवस्था तथा बकरियों में स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं न हों। हालांकि इसके बावजूद भी बकरियों को कई तरह की खतरनाक बीमारियां फैलती है। अगर इन बीमारियों का बकरी पालक समय से उपचार या इनका विशेष ख्याल नहीं रखते हैं, तो इसके कारण बकरियों की मृत्यु भी हो जाती है, जिससे पशुपालकों को काफी बड़ा नुकसान भी होता है। ऐसे में बकरी पालकों को बकरियों में होने वाली विभिन्न खतरनाक बीमारियों, उनके लक्षणों व उनके उपचार और रोकथाम के उपायों के बारे में जानकारी होना बहुत जरूरी है, जिससे बकरियों में तेजी से फैलने वाली इन खतरनाक बीमारियों का समय से उपचार कर उससे होने वाले नुकसान से बचा जा सकें।
पशु चिकित्सकों के मुताबिक, बकरियों का पालन साइंटीफिक तरीके से करने के लिए सबसे पहले पशुपालकों को बकरियों की प्रजातियां, उनके पालन के लिए आवास, आहार और उनमें होने वाली बीमारियों के इत्यादि के बारे में पर्याप्त जानकारी होना बेहद जरूरी होता है। आमतौर पर बकरियों में पेस्ट डेस पेटिट्स रूमिनेंट्स (पीपीआर), फड़कियां (एन्टेरोटॉक्सीमिअ), निमोनिया (Pneumonia), चेचक (Pox), खुरपका-मुंहपका (F.M.D), बाहय परजीवी (ectoparasite), अंत: परजीवी (endoparasite), खूनी दस्त (coccidiosis), आफरा (Bloat/tympany) इत्यादि प्रमुख बीमारियां फैलती है। इन बीमारियों के लक्षणों एवं उपचार के बारे में पशुपालकों को जान लेना चाहिए। इससे उन्हें यह जानने में आसानी होगी कि भेड़-बकरियों में कब और कौन सी बीमारी का खतरा है और उसका इलाज क्या है।
पेस्ट डेस पेटिट्स रूमिनेंट्स (पीपीआर) को बकरी प्लेग रोग या बकरियों की महामारी रोग कहते हैं। इससे भेड़ व बकरियों में बुखार, मुंह में घाव, दस्त, निमोनिया तथा बकरियों की मौत तक हो जाती है। एक रिपोर्ट के अनुसार इस बीमारी की मृत्यु दर 50 से 80 प्रतिशत तक होती है। बीमारी अधिक बढ़ने पर यह शत- प्रतिशत यानी 100 प्रतिशत तक हो सकती है। इस बीमारी का प्रकोप सबसे ज्यादा मेमनों और कुपोषित भेड़-बकरियों में देखा जाता है।
पीआर रोग के लक्षण : इस रोग के लक्षण के रूप में तेज बुखार, मुंह और मुखीय श्लेष्मा झिल्ली में छाले और प्लाक उत्पन्न होना, आंख और नाक से पानी आना, दस्त, श्वेत कोशिकाओं की अल्पता, श्वास लेने में कष्ट इत्यादि लक्षण दिखाई देते हैं।
पीपीआर का कारगर उपचार : इस रोग के लक्षण दिखने पर बकरियों के लार और नाक से निकलने वाले स्त्रावों को जांच के लिए प्रयोगशाला में भिजवाना चाहिए। संक्रमण को रोकने के लिए ऑक्सिटेट्रासायक्लीन और क्लोरटेट्रासायक्लीन औषधियां विशिष्ट रूप से अनुशंसित है। बीमार बकरियों को पोषक, स्वच्छ, मुलायम, नम और स्वादिष्ट चारा खिलाना चाहिए। अपने नजदीकी पशु-चिकित्सालय से तुरंत संपर्क करना चाहिए। बकरियों में पीपीआर का टीकाकरण करना चाहिए।
फिड़किया (एन्टेरोटॉक्सीमिअ) रोग भेड़ व बकरियों में होने वाली एक प्रमुख बीमारी है। क्लोस्ट्रीडियम पर्फ्रिन्जेस नामक जीवाणु के कारण यह रोग होता है। यह बीमारी हर उम्र, नस्ल और लिंग की भेड़ व बकरियों में मुख्य रूप से होती है। हरे चारे को अधिक मात्रा में खाने से पशु इस रोग से ग्रसित होते हैं।
रोग के लक्षण– इस बीमारी में बकरियों में आफरा आ जाता है। पशु की मांसपेशियों में खिंचाव हो जाता हैं। इससे प्रभावित रोगी पशु पेट में दर्द के कारण पिछले पैर मारता है और धीरे-धीरे सुस्त हो जाता है। ग्रसित रोगी पशु जमीन पर गिर जाता है, उसकी टांगे व सिर खिंच जाते हैं। पशु सिर को दीवार से टकराता है तथा अधिक ध्यान से देखने पर पशु के अंगों में फड़कन (कंपन्न) सी दिखाई देती है। इस रोग के लक्षण प्रकट होने के 3 से 4 घंटे में पशु मर जाता है। इस रोग में पशु शाम को ठीक प्रकार चर कर आते हैं और सुबह पशु की अचानक मृत्यु हो जाती है।
रोग से बचाव के उपाए– प्रभावित पशु को अधिक प्रोटीन युक्त चारा कम मात्रा में खिलाना चाहिए। पशुओं को दिये जाने वाले दाने व चारे में अचानक कोई परिवर्तन नही करना चाहिए । ताजा फसल कटाई के बाद पशुओं को अधिक समय के लिए खेतों में चरने नहीं देना चाहिए। अगर किसी भेड़ – बकरी का पेट फूला हुआ हो तो उस पशु को 10 से 20 ग्राम मीठा सोडा देना चाहिए। फिड़किया रोग से बचाव के लिए साल में दो बार पशुओं का टीकाकरण अवश्य करवाना चाहिए। टेट्रासाइक्लिन पाउडर का घोल दिन में 2-3 बार पिलाना चाहिए।
भेड़ व बकरियों में खूनीदस्त या पेचिश रोग का मलाशय पर प्रभाव पड़ता है। इस रोग से ग्रसित पशु को पतला दस्त और खूनी बदबूयुक्त पेचिश की समस्या होती है। यह रोग आमतौर से चार माह से दो साल तक के पशुओं को प्रभावित करता है।
लक्षण : इस रोग के प्रमुख लक्षण में अतिसार,पतला दस्त अथवा खूनी पेचिश है। इस रोग के कारण भूख प्रभावित होती है तथा स्वास्थ्य में गिरावट आती है। रोग के कारण पशु में कमजोरी हो जाती है और उसे प्यास अधिक लगने लगती है। पशु दुर्बल होने लगता है और तीव्र ज्वर का शिकार हो जाता है। रोग अधिक गंभीर होने पर पखाने में तरलयुक्त रक्त आता है तथा चौथे या पांचवें दिन रोगी पशु मर जाता है।
रोकथाम एवं उपचार : इस रोग में सबसे लाभकारी औषधियां, सल्फा औषधियां है। रोगी पशु को सल्फाग्वानेडीन, सल्फाग्वानेडीन की गोलियां, सल्फा बोलस की टेबलेट पांच ग्राम वाली मुख द्वारा एवं अंत: शिरा इंजेक्शन देने बहुत लाभकारी होता है। रोगी पशु को चावल के माण्ड मट्ठा में चोंगा मिलाकर दिन में दो से तीन बार देना लाभकारी होता है। तुरंत पशु चिकित्सक को बुलाना चाहिए और चिकित्सक की देखरेख में ही इलाज कराएं।
भेड एवं बकरियां नमी व ठंड के प्रति संवेदनशील होते है। नमी व ठंड वाले स्थानों में रहने से भेड़ व बकरियां निमोनिया बीमारी से ग्रसित हो जाती है और रोग अधिक फैलने से पशु की मृत्यु तक हो जाती है। यह रोग वर्षा से भीगे पशुओं में मुख्यत: देखा जा सकता है।
लक्षण : इस बीमारी से ग्रसित पशु को सांस लेना में कठिनाई, खांसी, मुंह व नाक से स्त्राव, खाना पसंद न करना आदि प्रमुख लक्षण है।
रोग उपचार : इस रोग से प्रभावित पशुओं को तारपीन के तेल की भाप देना चाहिए, पशुपालकों को चाहिए कि वे इन पशुओं को नमी व ठंड से बचाएं।
बीमारी का नाम | टीके का नाम | खुराक दर | पुनरावृत्ति |
फड़किया | मल्टी-कंपोनेंट/टाईप-डी | 2 मि.ली., त्वचा के नीचे | प्रत्येक 6 महीने बाद |
पीपीआर(प्लेग) | टिशु कल्चर | 1 मि.ली., त्वचा के नीचे | प्रत्येक 3 वर्ष बाद |
खुरपका-मुंहपका | पॉली वेलैन्ट | 2-3 मि.ली., त्वचा के नीचे या मांस में | प्रत्येक 6 महीने बाद |
गलघोंटू | ऑयल-एडजूवेंट | 2 मि.ली., मांस में | वर्ष में एक बार |
लंगडिया बुखार | पॉली वेलैन्ट फार्मल किल्ड | 2-3 मि.ली., त्वचा के नीचे | वर्ष में एक बार |
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