तालाब, झील, दलदली क्षेत्र के शांत पानी में उगने वाला मखाने पोषक तत्वों से भरपूर एक जलीय उत्पाद है। मखाने की खेती नकदी फसल के रूप में की जाती है। मखाने मुख्य रूप से पानी की घास में होता है। इसे कुरूपा अखरोट के नाम से भी जानते है। इसे भारत के कई क्षेत्रों में लावा भी कहते हैं। मखाने को दूध में भिगोकर खाने के अलावा खीर, मिठाई और नमकीन को बनाने के लिए भी उपयोग में लाते है। मखाने के बीज को भूनकर इसका उपयोग मिठाई, नमकीन, खीर आदि बनाने में होता है। इसमें आयरन, सोडियम, कैलोरी, मिनरल, फॉस्फोरस, कार्बोहाइड्रेट, फैट और प्रोटीन जैसे पोषक तत्वों की भरपूर मात्रा पायी जाती है, जो मानव शरीर के लिए अधिक लाभकारी होता है। इसे खाने में कई तरह से इस्तेमाल में लाते है।
मखाने की खेती के लिए जलभराव वाली भूमि की आवश्यकता होती है। इसकी खेती ऐसी है जिसमे न तो खाद और न ही कीटनाशक का इस्तेमाल होता है। खर्च के नाम पर काफी कम पैसे लगते हैं। पानी में उगे फूल और पत्तों सा दिखने वाला मखाने साल में 3 से 4 लाख रूपये की कमाई करा देता है। इसकी खास बात यह है कि मखाने निकालने के बाद स्थानीय बजारों में इसके कंद और डंठल की भी भारी मांग होती है, जिसे किसान बेचकर अतिरिक्त पैसा कमाते हैं। यदि आप भी मखाने की खेती कर अधिक से अधिक लाभ कमाना चाहते है, तो ट्रैक्टरफर्स्ट की आज की इस पोस्ट को ध्यान पूर्वक पढ़े। आज की इस पोस्ट में मखाने की खेती से संबंधित सभी जानकारी साझा की जा रही है।
भारम में मखाने की खेती की शुरुआत बिहार के दरभंगा जिला से हुई। अब इसका विस्तार क्षेत्र सहरसा, पूर्णिया, कटिहार, किशनगंज होते हुए पश्चिम बंगाल के मालदा जिले के हरिश्रंद्रपुर तक फैल गया है। पिछले एक दशक से पूर्णिया जिले में मखाने की खेती व्यापक रूप से हो रही है। साल भर जलजमाव वाली जमीन मखाने की खेती के लिए उपयुक्त साबित हो रही है। बड़ी जोत वाले किसान अपनी जमीन को मखाने की खेती के लिए लीज पर दे रहे हैं। इसकी खेती से बेकार पड़ी जमीन से अच्छी वार्षिक आय हो रही है। पूरे भारत में तकरीबन 15 हजार हेक्टेयर के खेत में मखाने की खेती की जाती है। अकेले बिहार राज्य में ही तकरीबन 80 से 90 फीसदी मखाने का उत्पादन किया जाता है, तथा उत्पादन का 70 प्रतिशत भाग मिथिलांचल का है। तकरीबन 1 लाख 20 हजार टन मखाने बीज का उत्पादन किया जाता है, जिसमे से मखाने के लावे की मात्रा 40 हजार टन होती है। इसका बोटैनिकल नाम यूरेल फेरोक्स सलीब है, जो साधारण बोल-चाल में कमल का बीज कहलाता है। इसे गर्म और शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में उगाया जाता है।
मखाने का सेवन करना शरीर के लिए बहुत ही लाभदायक होता है। इसमें फाइबर की पर्याप्त मात्रा पायी जाती है, तथा कैलोरी बहुत ही कम पाया जाता है। मखाने का नियमित रूप से सेवन करने से किडनी और दिल स्वस्थ बना रहता है, क्योकि इसमें 9.7 प्रतिशत आसानी से पचने वाला प्रोटीन, 76 प्रतिशत कार्बोहाईड्रेट, 12.8 प्रतिशत नमी, 0.1 प्रतिशत वसा, 0.5 प्रतिशत खनिज लवण, 0.9 प्रतिशत फॉस्फोरस एवं प्रति 100 ग्राम 1.4 मिलीग्राम लौह पदार्थ मौजूद होता है। इसमें औषधीय गुण भी होता है। जो शारीरिक शक्ति के लिए बहुत ही लाभकारी माना जाता है तथा शारीरिक कमजोरी को भी दूर करता है।
भारत में जिस तरह की जलवायु है, उस हिसाब से इसकी खेती आसान मानी जाती है। गर्म मौसम और बड़ी मात्रा में पानी इस फसल को उगाने के लिए जरूरी है,क्योकि इसके पौधों का विकास पानी के अंदर ही होता है। इसलिए मखाने की खेती के लिए जलभराव वाली काली चिकनी मिट्टी वाले तालाब की जरूरत होती है, जिसमे पानी अधिक समय तक एकत्रित रहे। इसका पौधा उष्णकटिबंधीय वाला होता है, तथा सामान्य तापमान पर इसके पौधे ठीक से विकास करते है।
मखाने एक ऐसी फसल है जिसे पानी में उगाया जाता है। इसकी खेती करने के लिए तालाब की आवश्यकता होती है। मखाने की खेती करने के लिए तालाब को बीज रोपाई से चार माह पूर्व तैयार करना होता है। मखाने की खेती के लिए पहले ऑर्गेनिक तरीके से तालाब को तैयार किया जाता है, जिसे सबसे पहले मिट्टी की खुदाई कर के तैयार किया जाता है, खुदाई के पश्चात तैयार तालाब में पानी भर दिया जाता है। इसके पश्चात उस तालाब में मिट्टी और पानी को मिलाकर कीचड़ को तैयार कर लेते है। इसी तैयार तालाब के कीचड़ में मखाने के बीजो को लगाया जाता है। इसके बाद तालाब में तकरीबन 6 से 9 इंच तक पानी की भराई कर दी जाती है। एक हेक्टेयर के खेत में तैयार तालाब में बीज रोपाई के लिए तकरीबन 80 किलोग्राम बीजो की आवश्यकता होती है।
इसके पौधे बीज रोपाई के एक से डेढ़ माह पश्चात अप्रैल माह में मखाने के पौधों में फूल आने लगते हैं। फूल पौधों पर 3-4 दिन तक टिके रहते हैं। और इस बीच पौधों में बीज बनाने की प्रक्रिया चलते रहती बनते हैं। एक से दो महीनों में बीज फलों में बदलने लगते हैं। इसके पौधों पर कांटेदार पत्ते पाए जाते है, इन्ही पत्तो पर बीजो का विकास होता है। जो विकास के पश्चात तालाब की सतह में चले जाते है। किसान भाई इन्हें बाद में पौधों हटाने के बाद निकालते है।
फल जून-जुलाई में 24 से 48 घंटे तक पानी की सतह पर तैरते हैं और फिर नीचे जा बैठते हैं। मखाने के फल कांटेदार होते है. एक से दो महीने का समय कांटो को गलने में लग जाता है, सितंबर-अक्टूबर महीने में पानी की निचली सतह से किसान उन्हें इकट्ठा करते हैं, फिर इसके बाद प्रोसेसिंग का काम शुरू किया जाता है. धूप में बीजों को सुखाया जाता है. बीजों के आकार के आधार पर उन की ग्रेडिंग की जाती है। मखाने के फल का आवरण बहुत ही सख्त होता है,उसे उच्च तापमान पर गर्म करते है एवं उसी तापमान पर उसे हथौड़े से फोड़ कर लावा को निकलते है,इसके बाद इसके लावा से तरह-तरह के पकवान एवं खाने की चीजे तैयार की जाती है। इसके एक क्विंटल बीजों से 40 किलोग्राम लावा प्राप्त हो जाता है। मखाने की खेती का उत्पादन प्रति एकड़ 10 से 12 क्विंटल होता है. इसमें प्रति एकड़ 20 से 25 हजार रुपये की लागत आती है जबकि 60 से 80 हजार रुपये की आय होती है।
मखाने के कच्चे माल को गोरिया कहा जाता है। इस गोरिया से लावा प्राप्त करने के लिए कुशल एवं प्रशिक्षित मजदूरों की आवश्यकता होती है। गोरिया से लावा प्राप्त करने की प्रक्रिया के लिए इन कुशल प्रशिक्षित मजूदरों को बिहार से बुलाया जाता है। मखाने कें तालाब से प्राप्त इस गोरिया से कच्चा माल को निकालने के लिए जुलाई में दरभंगा जिला के बेनीपुर, रूपौल, बिरैली प्रखंड क्षेत्रों से हजारों की संख्या में प्रशिक्षित मजदूर आते हैं। इन मजदूरों में महिला व बच्चे भी शामिल रहते हैं। ये मजदूर पूरे परिवार के साथ यहां आकर कच्चा माला से मखाने तैयार करते हैं। इन मजूदरों के रहने के लिए मालिक किसानो द्वारा छोटे-छोटे बांस की टाटी से घर तैयार कर इनकों रहने के लिए दिया जाता है। तालाब से लावा निकालने का कार्य जुलाई से शुरू हो जाता है और यह काम दिसंबर तक चलता है। लावा निकालने कार्य समाप्त होने पर ये मजदूर वापस दरभंगा चले जाते हैं। लावा को व्यापारियों का समूह खरीद कर ले जाते है। तीन किलो कच्च लावा में से एक किलो मखाने तैयार होता है। लावा का बाजार भाव लगभग 3500 से 6500 रूपए प्रति क्विंटल के बीच रहता है।
यह बताते चले कि पानी से मखाने निकालने में लगभग 20 से 25 प्रतिशत मखाने छूट जाता है और लगभग इतना प्रतिशत मखाने छिलका उतारते समय खराब हो जाता है।
मखाने की खेती पानी में की जाती है, ऐसे में पानी से निकालने में किसानों को तरह-तरह के समस्याओं का सामना करना पड़ता है। ज्यादा गहराई वाले तालाबों से तो मखाने निकालने वाले श्रमिकों का डूबने का डर भी बना रहता है।
मखाने का फल कांटेदार एवं छिलकों से घिरा होता है, जिससे की इसको निकालने एवं उत्पादन में और भी कठिनाई होती है।
समुचित सुरक्षा के साधनों के अभाव में किसान को पानी में रहने वाले जीवों से भी काफी खतरा रहता है। जल में कई ऐसे विषाणु भी होते हैं, जो गंभीर बीमारियां पैदा कर सकते हैं।
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