लोबिया (बोड़ा) एक महत्वपूर्ण नगदी सब्जी की व्यावसायिक फसल है। लोबिया की खेती मैदानी क्षेत्रों में फरवरी से अक्टूबर तक सफलतापूर्वक की जाती है। लोबिया एक दलहनी पौधा है जिसमें पतली, लम्बी फलियाँ होती हैं। इन फलियों का उपयोग कच्ची अवस्था में सब्जी के रूप में किया जाता है। लोबिया की इन फलियों को बोड़ा चौला या चौरा की फलियों के नाम से भी जाना जाता है। लोबिया हरी फली, सूखे बीज, हरी खाद और चारे के लिए पूरे भारत में उगाई जाने वाली वार्षिक फसल है। यह अफ्रीकी मूल की फसल है। यह सूखे को सहने योग्य, जल्दी पैदा होने वाली और खरपतवार को शुरूआती समय में पैदा होने से रोकती है। यह मिट्टी में नमी बनाए रखने में मदद करती है। लोबिया प्रोटीन, कैल्शियम और लोहे का मुख्य स्त्रोत है। पंजाब के उपजाऊ क्षेत्रों में इसकी खेती की जाती है। इस पौधे को हरी खाद बनाने के लिये भी प्रयोग में लाया जाता है। दलहनी फसल होने के कारण यह वायुमण्डलीय नत्रजन को भूमि में संचित करती है जिससे जमीन की उर्वरता बढ़ती है और आगामी फसल को इस नत्रजन का लाभ मिलता है। किसानों के लिए लोबिया की खेती करने का समय चल रहा है। इसकी खेती गर्म और आर्द्र जलवायु में की जाती है। किसान भाई इस मौसम में लोबिया की खेती कई उन्नत किस्मों से कर सकते हैं। इनसे उन्हें फसल के अच्छे उत्पादन के साथ अच्छा खासा मुनाफा कमाने को भी मिलेगा। तो आज ट्रैक्टरगुरु की इस पोस्ट के माध्यम से आपको हम लोबिया की खेती के बारे में जानकारी उपलब्ध कराने जा रहे हैं।
लोबिया में मौजूद प्रोटीन, वसा, कैल्शियम, फास्फोरस, आयरन, कैरोटीन, थायमीन, राइबोफ्लेविन, नियासीन, फाइबर, एंटीऑक्सीडेन्ट, विटामिन बी 2 और विटामिन सी जैसे कई पोषक भी तत्व पाए जाते हैं जो कि स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण हैं। लोबिया का सेवन अलग-अलग स्वास्थ्य स्थितियों जैसे - वजन कम करने में, पाचन, दिल को स्वस्थ रखे में, शरीर को डिटॉक्स, सर्कुलेटरी हेल्थ में सुधार, नींद से जुड़ी समस्याओं से राहत, स्किन केयर, डायबिटीज को मैनेज आदि स्वास्थ्य स्थितियों के अनुसार फायदेमंद हैं। इस फायदों को आप इसे डाइट में कई तरीकों से शामिल करके पा सकते हैं।
लोबिया एक गर्म और आर्द्र जलवायु वाली फसल है। लोबिया की खेती मैदानी क्षेत्रों में फरवारी से मार्च व जून से जुलाई में की जाती है। लोबिया की खेती खरीफ की फसल के साथ भी की जा सकती है। वैसे तो लोबिया पूरे भारत में उगाई जाने वाली वार्षिक फसल है। इसकी फसल बुवाई के बाद 45 से 50 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। और इससे प्रति हेक्टेयर लगभग 70 से 75 क्विंटल पैदावार मिल जाती है।
लोबिया की खेती दलहन फसल के रूप में की जाती है। किसान लोबिया की खेती हरी खाद, पशुओं के चारे एवं सब्जी के लिए करते है। इसकी कच्ची फलियों की तुड़ाई कर किसान स्थानीय बाजारों में बेचते हैं। इन कच्ची फलियों को सब्जी के रूप में खाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। किसान को लोबिया की फसल से अपने पशुओं के लिए उत्तम पौष्टिक चारा भी प्राप्त हो जाता है। किसान भाई इसके पौधों को पकने से पहले खेत में जोतकर इससे हरी खाद भी तैयार कर सकतें है । भारत में लोबिया की खेती मुख्य रूप से तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, केरल और उत्तर प्रदेश में की जाती है।
लोबिया की ग्रीष्मकालीन की खेती के लिए फरवरी से मार्च में एवं बरसाती फसल के लिए जून-जुलाई में बुआई की जानी चाहिए। क्योंकि लोबिया का पौधा समशीतोष्ण जलवायु का होता है। इसके पौधों का विकास शुष्क मौसम में उचित रूप से होता है। इसके पौधे को विकास करने के लिए अधिक बारिश की जरूरत नही होती है। इसके पौधे भूमि में नमी बनाकर रखते हैं। इसके पौधे लता और झाड़ीदार दोनों रूप में पाए जाते हैं।
लोबिया की खेती के लिए समशीतोष्ण जलवायु की जरूरत होती है। लोबिया की खेती के लिए गर्म मौसम सबसे उपयुक्त होता है। लेकिन अधिक तेज गर्मी भी इसके पौधों के विकास और पैदावार को प्रभावित करती है। इसके पौधे सर्दी के मौसम में विकास नही कर पाते। और अधिक बारिश इसकी खेती के लिए उपयोगी नही होती। लोबिया की खेती के लिए शुरुआत में बीजों को अंकुरित होने के लिए 20 डिग्री के आसपास तापमान की जरूरत होती है। अंकुरित होने के बाद इसके पौधे 35 डिग्री तापमान पर भी आसानी से विकास कर लेते है। सामान्य तापमान पर इसके पौधे अच्छे से विकास करते हैं। कुल मिलाकर कहा जाये तो इसके पौधों को उचित विकास के लिए शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती हैं।
लोबिया की फसल के लिए लगभग सभी प्रकार की मिट्टी को उपयुक्त माना गया है। इसे सभी प्रकार की मिट्टी में अच्छे प्रबंधन के साथ उगाई जा सकती हैं। लेकिन लोबिया की फसल के लिए मटियार या रेतीली दोमट मिट्टी को उपयुक्त माना है। फिर भी कई क्षेत्रों में इसे लाल, काली और लैटराइटी मिट्टी में भी उगाया जाता है। लोबिया की अच्छी फसल के लिए कार्बनिक पदार्थो से युक्त उपजाऊ मिट्टी को इसके लिए विशेष रूप से उपयुक्त होती है। इसकी खेती में उचित जल निकासी वाली भूमि की जरूरत होती है। अत्यधिक लवणीय क्षारीय मृदा इसकी खेती के लिए सही नहीं है। इसकी खेती के लिए भूमि का सामान्य पीएच मान 6 से 8 बीच उदासीन होना चाहिए।
पूसा कोमल- लोबिया की यह किस्म बैक्टीरियल ब्लाईट प्रतिरोधी है। इस किस्म की बुवाई बसंत, ग्रीष्म और बारिश, तीनों मौसम में आसानी से की जा सकती है। इसकी फलियों का रंग हल्का हरा होता है। यह मोटा गुदेदार होता है, जो कि 20 से 22 सेमी लम्बा होता है। अगर किसान इस किस्म की बुवाई करता है, तो इससे प्रति हेक्टेयर 100 से 120 क्विंटल पैदावार मिल जाती है।
पंत लोबिया - 4 लोबिया की इस किस्म के पौधे लगभग डेढ़ फीट के आसपास पाए जाते हैं। इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 60 से 65 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं। इस किस्म की खेती अगेती फसल के रूप में की जाती है। इस किस्म की फलियों की लम्बाई आधा फिट के आसपास पाई जाती है। जिसके दानों का रंग सफेद दिखाई देता है। जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 15 से 20 किवंटल के आसपास पाया जाता है।
लोबिया 263 - लोबिया की इस किस्म के पौधे खरीफ और रबी दोनों मौसम में उगाये जा सकते हैं। जिनकी खेती अगेती फसल के रूप में की जाती है। इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 40 से 50 दिन में पहली हरी फली की तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं। जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 125 किवंटल के आसपास पाया जाता है। इस किस्म के पौधों में विषाणु जनित रोग काफी कम पाए जाते हैं।
अर्का गरिमा - यह किस्म खम्भा प्रकार की किस्म कहलाती है, जिसकी ऊंचाई 2 से 3 मी की होती है। इस किस्म को बारिश और बसंत ऋतु में आसानी से बो सकते हैं। रोपाई के लगभग 40 से 45 दिनों पककर तैयार हो जाती है। इस किस्म से 80 क्विंटल प्रति हेक्टेेयर की दर के आसपास उत्पादन मिलता है।
पूसा बरसाती - लोबिया की इस किस्म को बारिश के मौसम में ज्यादा लगाया जाता है। इसकी फलियों का रंग हल्का हरा होता है, जो कि 26 से 28 सेमी लंबी होती है। खास बात है कि यह किस्म लगभग 45 से 50 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इससे प्रति हेक्टेयर लगभग 85 से 100 क्विंटल पैदावार मिल जाती है।
पूसा ऋतुराज - लोबिया की यह किस्म प्रकाश एवं तापक्रम के प्रति अति संवेदनशील व फलिया 20 से 25 सेमी. लम्बी होती है एवं हरी फलियों की उपज लगभग 75 से 80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
अच्छी पैदावार के लिए बीजों का उपचार करके ही बोना चाहिए। बीजों को उपचारित कर के बोने से लगभग 95 प्रतिशत बीजों का अंकुरण उचित रूप से होता है। साथ फसल में होने वालें रोगों की संभवना कम हो जाती है। लोबिया के बीजों को बुवाई से पूर्व 2.5 ग्राम थीरम दवा से प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित कर लोबिया बीजो को विशिष्ट राइजोबियम कल्चर से शोधित करें।
लोबिया की गर्मी की फसल के लिए फरवरी से मार्च में एवं बरसाती फसल के लिए जून से जुलाई के महीने में बुवाई करनी चाहिए। गर्मी में इसकी बुवाई समतल भूमि में कर सकते है। एवं बरसात ऋतु की फसल की बुवाई मेंडों पर 15 सेन्टीमीटर की ऊँचाई पर पंक्तियों में कर सकतें है। लोबिया की खेती के लिए 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीजों की आवश्यकता पड़ती है। दाना एवं हरी फलियों के लिए लोबिया की बीजों की बुवाई पंक्तियों में करनी चाहिए। इन बीजों की बुवाई खेती के प्रकार के अनुसार ही करें। अगर दानें के लिए इसकी बुवाई कर रहें है तो बीजों की बुवाई 30 से 40 सेमी. तथा फलियों के लिए बुवाई पर 25 से 35 सेमी की दूरी पर करें।
खाद व उर्वरक के मामले में साधारण भूमि में 10-15 टन तक गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर कि दर से खेत की तैयारी के समय मिट्टी में मिला देना चाहिए। लोबिया की अच्छी उपज के लिये 30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें। भूमि एवं पौधों की आवश्यकतानुसार जिंक सल्फेट का प्रयोग भी किया जा सकता हैं। लोबिया की बुवाई के बाद आवश्यकतानुसार एक हल्की सिंचाई करना अंकुरण के लिए अच्छा रहता है। जायद के मौसम में तापक्रम बढऩे से प्रति सप्ताह या 10 से 12 दिन के अंतराल में सिंचाई करतें रहें।
रोमिल सूंडी कीट - यह लोबिया का प्रमुख कीट है। यह फसल को भारी नुकसान पहुंचाता है अगर फसल में इस कीट का प्रकोप दिखे तो 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 2 प्रतिशत मिथाइल पेराथियानद पाउडर का छिडक़ाव करें।
तेला और काला चेपा - लोबिया फसल पर यदि तेला और काले चेपे का हमला दिखे तो मैलाथियॉन 50 ई सी 200 मि.ली. को 80-100 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में डालें।
लीफ होपर, जैसिड, एफिड - ये कीट पौधे के रस को चूसकर उसे पीला व कमजोर कर देते है। अगर इस कीट का प्रकोप फसल में दिखे तो इसकी रोकथाम के लिए डाईमेथोएट 30 ई.सी. या मिथाइल डिमेटान 30 ई.सी. की 2 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोलकर छिडक़ाव करें।
बीज गलन और पौधों का नष्ट होना - यह बीमारी बीज से पैदा होने वाले माइक्रोफलोरा के कारण फैलती है। प्रभावित बीज सिकुड़ जाते हैं और बेरंग हो जाते हैं। प्रभावित बीज अंकुरण होने से पहले ही मर जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए बुवाई से पहले थीरम दवा 2.5 ग्राम या बवास्टिन 50 डब्ल्यू पी 2 ग्राम से प्रति किलो बीजों का उपचार करें।
जीवाणु झुलसा - रोग के लक्षण व प्रकोप प्रारंभिक दशा में बड़े पैमाने पर नवजात पौधों में देखनें को मिलता हैं। इसकी रोकथाम के लिए 0.2 प्रतिशत का ब्लाईटाक्स का छिडक़ाव करें।
लोबिया मोजैक - यह बीमारी सफेद मक्खी द्वारा संचारित होती है। इससे पत्तियों का आकार विकृत हो जाता है। इसकी रोकथाम के लिए 0.1 प्रतिशत मेटासिस्टॉक्स या डाइमेथोएट का छिडक़ाव 10 दिन के अन्तराल पर करें।
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