तोरई की वैज्ञानिक खेती से किसान कर सकते हैं लाखों रुपए की कमाई

पोस्ट -25 मई 2022 शेयर पोस्ट

जानें, तोरई की खेती कब और कैसे करें, कौनसी किस्में देगी अधिक पैदावार

यह एक बेल वाली कद्दूवर्गीय सब्जी हैं, जिसको बड़े खेतों के अलावा छोटी गृह वाटिका में भी उगाया जा सकता हैं। इस सब्जी की खेती भारत के लगभग सभी राज्यों में की जाती हैं, वही महाराष्ट्र 1147 हेक्टेयर क्षेत्र में इसकी खेती की जाती है। इसकी खेती ग्रीष्म (जायद) और वर्षा (खरीफ) दोनों ऋतुओं में की जाती हैं। इसकी खेती को नगदी के तौर पर व्यावसायिक फसल के रूप में किया जाता है। इस सब्जी की भारत में छोटे कस्बों से लेकर बड़े शहरों तक बहुत मांग है क्योंकि यह अनेक प्रोटीन के साथ खाने में भी स्वादिष्ट होती है। चिकनी तोरई के कोमल मुलायम फलों की सब्जी बनाई जाती हैं, तो वहीं इसके सूखें बीजों से तेल भी निकाला जाता है। तोरई को कैल्शियम, फॉस्फोरस, लोहा और विटामिन “ए” का अच्छा स्त्रोत माना जाता हैं। गर्मियों के दिनों में बाजार में इसकी मांग बहुत ज्यादा होती हैं, किसानों के लिए इसकी खेती करना बहुत लाभदायक हैं। इसकी बुवाई का सही समय मैदानी भागों में फरवरी-मार्च व जून-जुलाई हैं। इस सब्जी की अगेती खेती जो अधिक आमदनी देती है, उसे करने के लिए पॉली हाउस तकनीक में सर्दियों के मौसम में भी नर्सरी तैयार करके की जा सकती है। बारिश का मौसम तोरई की खेती के लिए सबसे अच्छा होता है। तोरई की खेती खरीफ की फसल के साथ भी की जा सकती है। यदि आप भी तोरई की खेती करना चाहते है, तो ट्रैक्टरगुरु की इस पोस्ट में आपको तोरई की खेती कब और कैसे करें तथा तोरई की खेती का समय इसके बारे में जानकारी दी जा रही है। इस जानकारी से आपको तोरई की उन्नत खेती करने के लिए जरूरी सुझाव मिलेंगे। जिससे आप तोरई की उन्नत खेती कर लाखों की कमाई प्रति हेक्टेयर कर उचित मुनाफा कमा सकतें है। क्योंकि इस सब्जी की बाजारों में हमेशा मांग रहती है।

तोरई खेती के लिए मौसम का चुनाव

तोरई के उत्पादन के लिए जायद मौसम की अपेक्षा, खरीफ मौसम अधिक उपयुक्त होता है। समशीतोष्ण जलवायु इसकी खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है। इसके पौधों को अच्छे से विकास करने के लिए शुष्क और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है। अधिक ठंडी जलवायु इसके पौधे सहन नहीं कर पाते है। गर्मियों के मौसम में बेलों की वृद्धि, पुष्पन तथा फलन अधिक होता है। खरीफ सीजन तोरई की खेती में बीज की गुणवत्ता व फल भी अधिक प्राप्त होता है। तोरई के पौधे सामान्य तापमान में अच्छे से अंकुरित होते है। इसके पौधे अधिकतम 35 डिग्री तापमान को ही सहन कर सकते है।

तोरई की फसल कितने दिन में तैयार होती है?

तोरई की कुछ किस्म जैसे घिया तोरई, पूसा नसदार किस्म जिसे कुछ इलाकों में खर्रा भी कहा जाता है। इसे दूूसरे शहरों तक पहुंचाने में फल कम घिसते हैं। तोरई की इन किस्मों की मुम्बंई, दिल्ली जैसे महानगरों में ज्यादा पसंद की जाती है। तोरई की इन उन्नत किस्मो की बीज रोपाई के बाद 70 से 80 दिन में फल मिलने शुरू हो जाते है। 

तोरई को कब बोया जाता है?

तोरई की खेती जायद (ग्रीष्म) और खरीफ (वर्षा), दोनों ऋतुओं में की जाती हैं। किसान ग्रीष्मकालीन (जायद) सीजन तोरई की बुवाई मार्च में कर सकते हैं, साथ ही इसकी वर्षाकालीन (खरीफ) सीजन फसल को जून से जुलाई में बो सकते हैं। तोरई की अगेती खेती जो अधिक आमदनी देती है, उसे करने के लिए पॉली हाउस तकनीक में सर्दियों के मौसम में भी तोरई की नर्सरी तैयार करके की जा सकती है। पहले तोरई की पौध तैयार की जाती है और फिर मुख्य खेत में जड़ों को बिना क्षति पहुंचाए रोपण किया जाता है। तोरई की बुवाई के लिए नाली विधि ज्यादा उपयुक्त मानी जाती है। इसलिए जहां तक तक हो इसकी बुवाई के लिए नाली विधि का ही प्रयोग करें।  

तोरई की अगेती खेती के लिए पॉली हाउस विधि का प्रयोग

कद्दूवर्गीय सब्जियां लौकी, तोरई, पेठा, खीरा, टिण्डा, करेला आदि की अगेती फसल तैयार करने के लिए पॉली हाउस में जनवरी में झोपड़ी के आकार का पॉली हाउस बनाकर पौध तैयार की जा सकती हैं। पौधे तैयार करने के लिए 15 x 10 से.मी. आकार की पॉलीथीन की थैलियों में 1ः1ः1 मिट्टी, बालू व गोबर की खाद भरकर जल निकास की व्यवस्था के लिए सुजे की सहायता से छेद कर सकते हैं। बाद में इन थैलियों में लगभग 1 से.मी. की गहराई पर बीज बुवाई करके बालू की पतली परत बिछा लें तथा हजारे की सहायता से पानी लगाएं। लगभग 4 सप्ताह में पौधे खेत में लगाने के योग्य हो जाते हैं। जब फरवरी माह में पाला पड़ने का डर समाप्त हो जाए तो पॉलीथीन की थैली को ब्लेड से काटकर पौधे की मिट्टी के साथ खेत में बनी नालियों की मेंढ़ पर रोपाई करके पानी दें।

तोरई के खेती के उपयुक्त मिट्टी 

तोरई की खेती ग्रीष्मकालीन और वर्षाकालीन दोनों ही मौसम की जाती है। इसकी खेती के लिए समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त मानी जाती है। अधिक ठण्ड जलवायु इसके पौधे सहन नहीं कर पाते है। शुष्क और आर्द्र जलवायु में इसके पौधों का विकास अच्छे से होता है। तोरई की अच्छी फसल के लिए कार्बनिक पदार्थो से युक्त उपजाऊ मिट्टी की आवश्यकता होती है। इसकी खेती में उचित जल निकासी वाली भूमि की जरूरत होती है। सामान्य पीएच 6.5 से 7.5 मान वाली भूमि इसकी खेती के लिए उपयुक्त होती है।  

तोरई के बीजों की बुवाई का तरीका

तोरई की बुवाई बीज एवं पौधों की रोपाई दोनों ही विधि से की जाती है। तोरई के एक हेक्टेयर के खेत में दो से तीन किलो बीज की आवश्यकता होती है। बीजो की रोपाई के लिए खेत में धौरेनुमा क्यारियों को तैयार कर लिया जाता है। तोरई के बीजों की रोपाई मेड के अंदर डेढ़ से दो फीट दूरी रखते हुए की जाती है, ताकि इससे पौधे भूमि की सतह पर अच्छे से फैल सके। तैयार की गई इन क्यारियों के मध्य 3 से 4 मीटर तथा पौधे से पौधे के मध्म 80 सेमी. की दूरी रखनी चाहिए। नालियाँ 50 सेमी. चौडी व 35 से 45 सेमी. गहरी होनी चाहिए। इसके बीजों की रोपाई खरीफ के मौसम में की जाती है। यदि आप इसकी फसल बारिश के मौसम में प्राप्त करना चाहते है, तो उसके लिए आपको बीजों की रोपाई जनवरी के माह में करनी होती है, तथा खरीफ के मौसम में फसल प्राप्त करने के लिए बीजों की रोपाई जून के महीने में की जाती है। 

बुवाई से पहले बीज उपचार

तोरई के बीजों की बुवाई से पहले बीजों का उपचार करना अति आवश्यक होता है। बीज उपचार से फसल में होने वालें रोगों की संभावना कम होती है एवं बीजों का अंकुरण भी अच्छे से होता है। तोरई के बीजों को थाइरम नामक फफुदनाशी (2 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज) दर से उपचारित करना चाहिए। बीजों के शीघ्र अंकुरण के लिए बीजों को बुवाई से पूर्व एक दिन के लिए पानी में भिगोना चाहिए तथा इसके पश्चात बोरी या टाट में लपेट कर किसी गर्म जगह पर रखना चाहिए। इससे बीजों को जल्द अंकुरण में मदद मिलती है। 

खाद एवं उर्वरक की मात्रा का प्रयोग

तोरई की खेती करने से पहले मृदा एवं जल का परीक्षण किसान भाई को जरूर करवा लेना चाहिए। मृदा परीक्षण से खेत में पोषक तत्वों की कमी का पता चल जाता है एवं किसान भाई परीक्षण रिपोर्ट के हिसाब से खाद व उर्वरक का प्रयोग कर उचित पैदावार ले सकता है। खाद व उर्वरक के मामले में साधारण भूमि में 15-20 टन तक गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की तैयारी के समय मिट्टी में मिला देना चाहिए। तोरई को 40 से 60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30-40 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा के समय ही समान रूप से मिट्टी में मिला देना चाहिए। नाइट्रोजन की बची हुई शेष मात्रा 45 दिन बाद पौधों की जड़ों के पास डालकर मिट्टी चढ़ा देना चाहिए।   

तोरई की विकसित उन्नत किस्में 

तोरई की खेती नगदी फसल के रूप की जाती है। इसकी मांग गर्मी के दिनों अधिक रहती है। गर्मी के दिनों में किसानों को इसकी खेती से अधिक मुनाफा भी मिलता है। तोरई का उत्पादन तोरई की उन्नत किस्मों पर निर्भर करती है। तोरई की अच्छी पैदावार लेने के लिए किसान भाई तोरई की अच्छी किस्म का ही चयन करें। वर्तमान समय में तोरई की बहुत सी उन्नत किस्म बाजार में उपलब्ध है, जो रोग प्रतिरोधक एवं अधिक उपज देने वाली है। किसाना भाई इन उन्नत किस्मों का प्रयोग कर अधिक पैदावार ले सकते है। वैसे तो तोरई की पूसा चिकनी, पूसा स्नेहा, पूसा सुप्रिया, काशी दिव्या, कल्याणपुर चिकनी, फुले प्रजतका आदि को उन्नत किस्मों में शामिल किया गया है। लेकिन घिया तोरई, पूसा नसदान, सरपुतिया, कोयम्बूर 2 आदि किस्में का प्रयोग किसानों द्वारा अधिक किया जाता है। इन उन्नत किस्मो की बीज रोपाई के बाद 70 से 80 दिन में फल मिलने शुरू हो जाते है। यह किस्में 100 से 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से पैदावार देती है। 

तोरई में होने वाले रोग एवं रोकथाम

  • एन्थ्रेक्नोज : इस बीमारी से पत्तों से फलों पर भूरे धब्बे पड़ जाते हैं तथा अधिक नमी वाले मौसम में इन धब्बों पर गोंद जैसा पदार्थ दिखाई देता है। इस रोग से बचने के लिए मैंकोजेब का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से 15 से 20 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए।

  • चिट्टा रोग या पाउडरी मिल्ड्यू : फफूंद से पत्तों, तनो और पौधों के दूसरे भागों पर फफूंदी की सफेद आटे जैसी परत जम जाती है। रोग की रोकथाम के लिए केरेथीयॉन एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी को घोलकर छिड़काव करें। 

  • डाउनी मिल्ड्यू : पत्तों की ऊपरी सतह पर पीले और नारंगी रंग के दाग धब्बे बन जाते हैं। रोग के नियंत्रण के लिए लौकी की जाति के खरपतवारों को नष्ट कर देना चाहिए। पौधों पर मेंकोजेब कॉपर आक्सीक्लोराइड का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें।

  • प्रमुख कीट लालड़ी या रेड पंपकिन बीटल : रेड पंपकिन बीटल यह सभी कद्दू वर्गीय सब्जियों का प्रमुख कीट है। इसके लाल पीले रंग के प्रौढ़ पत्तियों में गोल सुराख बनाते हैं तथा क्रीम रंग की सुण्डिया जमीन में रहकर जड़े काटकर पौधों को नुकसान पहुंचाती हैं। रोकथाम के लिए 0.2 प्रतिशत कार्बोरील का या 0.05 प्रतिशत साईपरमेंथ्रिन का छिड़काव करें। सुंडियों से बचने के लिए 1.5 लीटर क्लोरपायरिफॉस का एक हेक्टर क्षेत्र में बिजाई के एक महीने बाद सिंचाई के साथ उपयोग करें।

  • मोजेक : प्रभावित पौधों के पत्ते पीले पड़ जाते हैं। जिससे पैदावार बहुत कम मिलती है यह विषाणु जनित रोग है जो बीज व चेंपा द्वारा फैलता है। इस रोग से बचाव के लिए रोगग्रस्त पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए चेंपा को नष्ट करने के लिए नियमित रूप से कीटनाशक का छिड़काव करें।

  • तेला, चेंपा और माइट : यह सभी शिशु तथा प्रौढ़ावस्था में पत्तों से रस चूसते हैं। जिसके कारण पौधे पीले व कमजोर हो जाते हैं तथा पैदावार घट जाती है। इन सभी की रोकथाम के लिए 0.1ः मेलाथीयॉन 0.05 या 5ः इमिडाक्लोप्रिड का छिड़काव करना लाभप्रद है। 

  • फल मक्खी : कोमल फलों के गूदे में अंडे देती हैं और इन अंडों से निकलने वाली लटे फल के गुद्दे को खाती है। जिससे फल सड़कर खराब हो जाते हैं। इस कीट के प्रकोप से बचने के लिए 0.2 प्रतिशत कार्बोरील या 01 प्रतिशत मेलाथीयॉन का 10 से 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए।

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