हल्दी (टर्मरिक) आयुर्वेद में एक महत्वपूर्ण औषधीय पौधा है। इसको आयुर्वेद में प्राचीन काल से ही एक चमत्कारिक द्रव्य के रूप में मान्यता प्राप्त है। यह अदरक की प्रजाति का 4 से 5 फुट तक बढ़ने वाला पौधा है जिसमें जड़ की गाठों में हल्दी मिलती है। भारतीय रसोई में इसका महत्वपूर्ण स्थान है और धार्मिक रूप से इसको बहुत शुभ समझा जाता है। हल्दी के औषधीय गुणों के वजह से इसे विश्व स्तरीय पहचान प्राप्त है। हल्दी दो प्रकार की होती है, काली हल्दी और पीली हल्दी। आज हम हल्दी की काली किस्म के बारें में बात कर रहे है। पील हल्दी की भॉति काली हल्दी भी अपने औषधीय गुणों के वजह से विश्व स्तरीय पहचान प्राप्त है। आयुर्वेद में भी इसका उपयोग पीली हल्दी की तरह ही किया जाता है। काली हल्दी चमत्कारिक गुणों के कारण इसका उपयोग सौंदर्य प्रसाधन और रोग नाशक दोनों ही रूपों में होता है। मजबूत एंटीबायोटिक गुणों के साथ चिकित्सा में जड़ी-बूटी के रूप में प्रयोग होती है। यह इम्यून सिस्टम को बूस्ट करने के साथ कई तरह के रोगों से शरीर को बचाता है। एक्सपर्ट्स का मानना है कि काली हल्दी घाव, मोच, त्वचा रोग, पाचन और लीवर की समस्याओं को ठीक करने के लिए भी उपयोगी है। एक्सपर्ट्स हर रोज कुछ मात्रा में इसके सेवन की सलाह देते हैं। यह कोलेस्ट्रॉल को कम करने में मदद करती है। हालांकि इसे काली हल्दी कहते हैं लेकिन यह काले और नीले रंग के कॉम्बिनेशन में होती है। इसकी बाजार मांग भी काफी रहती है, जबकि इसका उत्पादन कम है। इस कारण इसकी खेती से किसान काफी अच्छा मुनाफा कमा सकते है। आइए ट्रैक्टरगुरु के इस लेख के माध्यम से काली हल्दी की खेती के बारे में जानते है।
काली हल्दी औषधीय फसलों में से एक है। ऐसे में किसान खेत के कुछ हिस्से में काली हल्दी की खेती से अच्छा लाभ कमा सकते हैं। काली हल्दी आमतौर पर भारत के पूर्वोत्तर और मध्य प्रदेश में उगायी जाती है। काली हल्दी को एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर माना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम करक्यूमा केसिया और अंग्रेजी में इसे ब्लैक जेडोरी कहते है। काली हल्दी का पौधा तना रहित शाकीय व 30 से 60 से.मी. तक ऊंचा होता है। इसकी पत्तियां चौड़ी भालाकार ऊपर सतह पर नीले बैंगनी रंग की मध्य शिरायुक्त होती है। पुष्प गुलाबी किनारे की ओर सहपत्र लिए होते हैं। इसके कंद या राईजोम बेलनाकार गहरे रंग के सूखने पर कठोर क्रिस्टल बनाते हैं। राइजोम का रंग कालिमायुक्त होता है। मणिपुर और कुछ अन्य राज्यों में जनजातियों के लिए इस पौधे का विशेष महत्व है, यहां इसके जड़ों से तैयार पेस्ट को घावों और सांप व बिच्छू के काटने पर भी लगाया जाता है।
विशेषज्ञों के अनुसार एक एकड़ खेत में काली हल्दी की जैविक खेती करने पर 50 से 60 क्विंटल कच्ची हल्दी का उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। सुखाने के बाद यह उत्पादन मात्रा 12 से 15 क्विंटल तक का होता है। बाजार में इसे आसानी से 500 रुपए प्रति किलो के भाव से बेचा जा सकता है। औषधीय गुण होने के कारण यह आसानी से इस भाव पर बिक जाती है। अंतर्राष्ट्रीय मानकों के आधार पर काली हल्दी की खेती करने वाले कई किसान इसे 4000 रुपए किलो के भाव पर बेचते हैं। काली हल्दी की ऑनलाइन बिक्री से ज्यादा लाभ मिलता है। इसकी व्यावसायिक खेती करने पर एक साथ लाखों की कमाई हो जाती है। एक एकड़ खेत में इसकी खेती से 7.5 लाख रुपए की आमदनी हो जाती है। जबकि इसकी खेती में कम से कम 2.5 लाख रुपए की लागत आ सकती है। जिसमें बीज, जुताई, सिंचाई, खुदाई का खर्च शामिल है। ऐसे में आमदनी में से लागत घटाकर लगभग 5 लाख रुपये का शुद्ध लाभ हासिल किया जा सकता है।
काली हल्दी की खेती के लिए उष्ण जलवायु सबसे उपयुक्त होती है। अच्छी पैदावार के लिए बलुई दोमट मिट्टी की आवश्यकता होती है। भूमि उचित जल निकासी वाली होनी चाहिए। भूमि का पीएच मान 5 से 7.5 के बीच होना चाहिए। ध्यान रखे की जल भराव या कम उपजाऊ भूमि में इसकी खेती नहीं की जा सकती है। काली हल्दी की फसल के लिए 15 से 40 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान उपयुक्त माना गया है।
काली हल्दी की खेती में बुवाई जून से जुलाई महीने में करनी उचित होती है। जुलाई यानि बरसात के दिनों में इसकी खेती में बुवाई करना उपयुक्त है। काली हल्दी की बुवाई के लिए लगभग 18 से 20 क्विंटल कंद प्रति हेक्टेयर की दर से आवश्यकता होती हैं। इसके कंदों को बुवाई से पहले उपचार करना जरूरी होता है, कंदों को उपचारित करने के लिए बाविस्टिन के 2 प्रतिशत घोल में कंद 20 से 25 मिनट तक भिगा कर रखें।
काली हल्दी की बुवाई या रोपाई से पहले खेत को तैयार करने के लिए मिट्टी पलटने वाले देसी हल से खेत की 2 से 3 गहरी जुताई करें, फिर खेत 15 से 20 टन पुरानी गोबर की खाद डालकर उसे अच्छे से मिट्टी में मिलाएं। इसके बाद खेत का पलेवा कर 2-3 दिन बाद रोटावेटर की मदद से जुताई मिट्टी को भुरभुरी बना लें। फिर खेत को समतल कर दें। तैयार खेती में बुवाई या रोपाई करने से पहले खेतों में क्यारी बना लें। क्यारी के बीच एक फीट की दूरी रखी जाती है। क्यारियों में कंदों की बुवाई 15 से 20 सेमी. की दूरी पर करें। बुवाई या रोपाई के वक्त यह ध्यान रखें कि कंदों को मिट्टी में 5 से 7 सेमी की गहराई पर करें। यदि इसकी रोपाई पौधों के रूप में कर रहे है, तो क्यारी के बीच एक से डेढ़ फीट की दूरी रखे। क्यारी में पौधों से पौधों की दूरी 20 से 25 सेमी रखे तथा क्यारी की चौड़ाई आधा फीट के करीब रखनी चाहिए।
काली हल्दी की खेती में उर्वरक की मात्रा भूमि परीक्षण के आधार पर दें। और इसकी जैविक खेती में खेत तैयार करते समय जरूरी प्राकृतिक उर्वरक मिट्टी में डालना चाहिए। इसके बाद पौधों की सिंचाई के समय जीवामृत घोल को तैयार कर देना चाहिए।
हल्दी के खेती की रोपाई बरसात के दिनों में होती है। इसलिए इसे ज्यादा सिंचाई की आवश्यता नहीं होती है। यदि इसकी खेती मई महीने में की जाती है, तो इसकी सिंचाई रोपाई के तुरंत बाद करनी चाहिए। इसके खेत की सिंचाई बुवाई से 10 से 15 दिनों के अन्तराल में करनी चाहिए। गर्म मौसम में इसके खेत की सिंचाई 10 से 15 दिनों के अंतराल में करना चाहिए। सर्दी के मौसम में 20 से 25 दिन के अंतराल में नमी के हिसाब से सिंचाई करनी चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण के लिए खेत की रोपाई 20 से 25 दिन बाद प्राकृतिक तरीके से निराई-गुडाई करे। एवं खरपतवार नियंत्रण के लिए समय-समय पर 25 से 30 दिन के अंतराल में निराई गुड़ाई करतें रहें। अधिकतम दो से चार गुड़ाई की आवश्यकता होती है।
Ans. काली हल्दी आमतौर पर भारत के पूर्वोत्तर और मध्य प्रदेश में उगायी जाती है।
Ans. काली हल्दी की खेती में बुवाई जून से जुलाई महीने में करनी उचित होती है।
Ans. इसका वैज्ञानिक नाम करक्यूमा केसिया और अंग्रेजी में इसे ब्लैक जेडोरी कहते है।
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