गेहूं के रोग और उपाय – गेहूं में लगने वाले कीट के उपाय

गेहूं के रोग और उपाय - गेहूं में लगने वाले कीट के उपाय

ट्रैक्टरगुरु पर किसान भाइयों का स्वागत है। आज हम बात करते हैं गेहूं में लगने वाले प्रमुख रोगों के बारे में। थोड़ी सी सावधानी से किसान भाई कैसे गेहूं की फसल की ज्यादा पैदावार ले सकते हैं। पिछले एक माह से गेहूं उत्पादक राज्यों के किसान मौसम के कई रंग देख चुके हैं। पहले गेहूं के अनुकूल ठंडी राते, दिन में धूप का निकलना और अब बारिश से देशभर में गेहूं की अनुकूल फसल होने का संदेश मिलता है। आइये जानते है गेहूं के रोग और उपाय, गेहूं में लगने वाले कीट, गेहूं की फसल में कौन सा फफूंदी रोग पाया जाता है जाने इस ब्लॉग में।

Table of Contents

गेहूं में लगने वाले प्रमुख रोगों के नाम

  1. धारीदार रतुआ या पीला रतुआ
  2. पर्ण रतुआ /भूरा रतुआ
  3. करनाल बंट खुला कंडुआ या लूज स्मट
  4. पर्ण झुलसा या लीफ ब्लाईट
  5. चूर्णिल आसिता या पौदरी मिल्ड्यू ,
  6. ध्वज कंड या फ्लैग समट
  7. पहाड़ी बंट या हिल बंट
  8. तना रतुआ या काला रतुआ
  9. पाद विगलन या फुट रांट

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1. गेहूं का पीला रतुआ रोग एवं उपचार ( धारीदार रतुआ )

देश के कई राज्यों में बारिश से नमी वाले तराई क्षेत्रों में गेहूं की फसल पीला रतुआ बीमारी होने की संभावना बढ़ जाती है, ऐसे में समय रहते किसानों को इस रोग का प्रबंधन करना चाहिए। कृषि विशेषज्ञों के अनुसार जनवरी और फरवरी में गेहूं की फसल में लगने वाले पीला रतुआ रोग आने की संभावना रहती है। निम्न तापमान और उच्च आर्दता पीला रतुआ के स्पोर अंकुरण के लिए सही होता है। हाथ से छूने पर धारियों से फफूंद के बीजाणू पीले रंग की तरह हाथ में लगते हैं। गेहूं में पीला रोग की चपेट में आने से कोई पैदावार नहीं होती है।

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गेहूं का पीला रतुआ रोग के लक्षण :

पत्तों का पीलापन होना ही पीला रतुआ नहीं कहलाता, बल्कि पाउडरनुमा पीला पदार्थ हाथ पर लगना इसका लक्षण है। पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले रंग की धारी दिखाई देती है, जो धीरे-धीरे पूरी पत्तियों को पीला कर देती है। पीला पाउडर जमीन पर गिरा देखा जा सकता है। पहली अवस्था में यह रोग खेत में 10-15 पौधों पर एक गोल दायरे में शुरु होकर बाद में पूरे खेत में फैल जाता है। तापमान बढऩे पर पीली धारियां पत्तियों की निचली सतह पर काले रंग में बदल जाती है।

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गेहूं का पीला रतुआ रोग का जैविक उपचार :

किसान भाई पीला रतुआ रोग से बचाव के लिए यह जैविक उपचार अपना सकते हैं। एक किलोग्राम तम्बाकू की पत्तियों का पाउडर 20 किलो लकड़ी की राख के साथ मिलाकर बीज बुवाई या पौध रोपण से पहले खेत में छिड़काव करें। गोमूत्र व नीम का तेल मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर लें और 500 मिली. मिश्रण को प्रति पम्प के हिसाब से फसल में तर-बतर छिड़काव करें। गोमूत्र 10 लीटर व नीम की पत्ती दो किलो व लहसुन 250 ग्राम का काढ़ा बनाकर 80-90 लीटर पानी के साथ प्रति एकड़ छिड़काव करें। पांच लीटर म_ा को मिट्टी के घड़े में भरकर सात दिनों तक मिट्टी में दबा दें, उसके बाद 40 लीटर पानी में एक लीटर म_ा मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें।

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गेहूं का पीला रतुआ रोग का रसायनिक उपचार :

रोग के लक्षण दिखाई देते ही 200 मिली. प्रोपीकोनेजोल 25 ई.सी. या पायराक्लोट्ररोबिन प्रति लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें। रोग के प्रकोप और फैलाव को देखते हुए दूसरा छिड़काव 10-15 दिन के अंतराल में करें।

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2. गेहूं का पर्ण रतुआ / भूरा रतुआ रोग

यह पक्सीनिया रिकोंडिटा ट्रिटिसाई नामक कवक से होता है तथा संपूर्ण भारत में पाया जाता है। इस रोग की शुरुआत उत्तर भारत की हिमालय तथा दक्षिण भारत की निलगिरी पहाडिय़ों से शुरू होता है एवं वहां पर जीवित रहता है तथा वहां से हवा द्वारा मैदानी क्षेत्रों में फैलकर गेहूं की फसल को संक्रमित करता है।

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गेहूं का पर्ण रतुआ के लक्षण :

इस रोग कि पहचान यह है कि प्रारम्भ में इस रोग के लक्षण नारंगी रंग के सुई की नोक के बिंदुओं के आकार के बिना क्रम के पत्तियों की उपरी सतह पर उभरते हैं जो बाद में और घने होकर पूरी पत्ती और पर्ण वृंतों पर फैल जाते हैं। रोगी पत्तियां जल्दी सुख जाती है जिससे प्रकाश संश्लेषण में भी कमी होती है और दाना हल्का बनता है। गर्मी बढऩे पर इन धब्बों का रंग, पत्तियों की निचली सतह पर काला हो जाता है तथा इसके बाद यह रोग आगे नहीं फैलता है। इस रोग से गेहूं की उपज में 30 प्रतिशत तक की हानि हो सकती है।

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गेहूं का पर्ण रतुआ रोग का उपचार:

धब्बे दिखाई देने पर 0.1 प्रतिशत प्रोपीकोनेजोल (टिल्ट 25 ईसी) का एक या दो बार पत्तियों पर छिड़काव करें।

3. गेहूं का करनाल बंट रोग

भारत में यह रोग अपेक्षाकृत ठंडे प्रदेशों जैसे जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश तथा उत्तराखंड के मैदानी इलाके पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश तथा उत्तरी राजस्थान में अधिक होता है। अधिक तापमान तथा उष्ण जलवायु वाले राज्यों जैसे कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, गुजरात तथा मध्यप्रदेश में नहीं पाया जाता। इस रोग का कारक एक कवक टिलेसिया इंडिका है। यह रोगजनक मृदा में रहता है तथा संक्रमित बीज इस रोग को नये क्षेत्रों में फैलाते हैं।

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गेहूं का करनाल बंट रोग के लक्षण:

इस रोग से दानों के अंदर काला चूर्ण बन जाता है तथा अंकुरण क्षमता कम हो जाती है।

गेहूं का करनाल बंट रोग के उपाय:

इस रोग कि रोकथाम के लिए बीज को थाइरम 2.5 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित कर बोयें। उन्नत प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग करें। रोकथाम हेतु खड़ी फसल में प्रोपिकोनोजोल 25 ई.सी. 0.1 प्रतिशत घोल का छिड़काव डफ अवस्था में करें।

4. खुला कंडुआ या लूज स्मट रोग

यह रोग आंतरिक रूप से संक्रमित बीज से पैदा होता है। इसका रोग जनक एक कवक अस्टीलैगो सेजेटम प्रजाति ट्रिटिसाई बीज के भू्रण भाग में छिपा रहता है तथा संक्रमित बीज ऊपर से देखते में बिल्कुल स्वस्थ बीजों की तरह ही दिखाई देता है। इस रोग से प्रति वर्ष उत्तर भारत में गेहूं कि उपज में 1-2 प्रतिशत की हानि होती है।

गेहूं में कंडुआ रोग के लक्षण:

इस रोग के लक्षण बाली आने पर ही दिखाई देते हैं। रोगी पौधों की बालियों में दानों की जगह रोग जनक के रोगकंड (स्पोर्स) काले पाउडर के रूप में पाये जाते हैं जो कि हवा से उड़कर अन्य स्वस्थ बालियों में बन रहे बीजों को भी संक्रमित कर देते हैं। इस प्रकार रोग आगे आने वाली फसल में पहुंच जाता है। प्राय: किसान भाई इस तरह से संक्रमित बीज से अनजान रहते हैं तथा बीजोपचार से चुक जाते हैं तथा बाद में उसकी फसल में इस रोग की कोई रोकथाम संभव नहीं होती है।

गेहूं में कंडुआ रोग के उपाय :

इस रोग कि रोकथाम के लिए रोग ग्रस्त पौधों को उखाड़कर जला दें। बीजों को कार्बोक्सिन 75 डब्लू.पी. 1.5 ग्राम या कर्बेन्डाजिम 50 डब्लू.पी. 1.0 ग्राम या टेब्यूकोनाजोल 2.0 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार कर बुवाई करें।

5. गेहूँ का पर्ण झुलसा रोग या लीफ ब्लाइट रोग

यह रोग मुख्यत: बाईपोलेरिस सोरोकिनियाना नामक कवक से पैदा होता है। यह रोग सम्पूर्ण भारत में पाया जाता है लेकिन इस रोग का प्रकोप नम तथा गर्म जलवायु वाले उत्तर पूर्वी क्षेत्र में अधिक होता है।

गेहूँ का पर्ण झुलसा रोग के लक्षण

इस रोग के लक्षण पौधे के सभी भागों में पाये जाते हैं तथा पत्तियों पर प्रमुख होते हैं। प्रारम्भ में रोग के लक्षण भूरे रंगे के नाव के आकार के छोटे धब्बों के रूप में उभरते हैं। जो कि बड़े होकर पत्तियों के सम्पूर्ण भाग या कुछ भाग को झुलसा देते हैं तथा ऊतक मर जाते हैं और हरा रंग नष्ट हो जाता है। इससे प्रकाश संशलेषण बुरी तरह प्रभावित होता है। इस प्रकार के बीज में अंकुरण क्षमता बहुत कम होती है। इस रोग से रोग ग्रसित फसल में 50 प्रतिशत तक उपज की हानि हो सकती है।

गेहूँ का पर्ण झुलसा रोग के उपाय :

इस रोग से बचाने के लिए जनवरी के प्रथम सप्ताह से 15 दिन के अंतराल पर सवा किलो मैंकोजेब प्रति हैक्टेयर का 6,000 लीटर पानी में घोल बनाकर 3-4 बार छिड़काव करें। इसके अलावा 2.5 ग्राम / कि.लो. बीज की दर से कार्बोक्सिन (वीटावैक्स 75 डब्ल्यूपी) के साथ बीजोपचार करें। खेत में जमाव न रहने दें।

6. चूर्णिल आसिता या पौदरी मिल्ड्यू रोग

यह रोग ठंडे प्रदेशों में पाया जाता है तथा ब्लुमेरिया ग्रैमेनिस ट्रिटिसाईनामक कवक से होता है। यह रोगजनक ग्रीष्म काल में उत्तर के पहाड़ों पर जीवित रहता है तथा बाद में फसल अवधि में उत्तरी मैदानी क्षेत्रों में फैल कर गेहूं की फसल को संक्रमित करता है।

लक्षण:

इस रोग से पत्तियों की उपरी स्थ पर गेहूं के आटे के रंग के सफेद धब्बे पड़ जाते हैं जो कि उपयुक्त परिस्थितियां होने पर बालियों तक पहुंच जाते हैं। तापमान बढऩे पर इन सफेद भूरे धब्बों में आलपिन की नोंक के आकार के गहरे भूरे क्लिस्टोथिसिया बन जाते हैं तथा इस रोग का फैलाव रुक जाता है। आजकल यह रोग उत्तरी पहाड़ी तथा उत्तरी पश्चिमी मैदानी क्षेत्रों में काफी फैलने लगा है तथा इन क्षेत्रों में उगने वाली प्रजातियों में इस रोग की प्रतिरोधी शक्ति कम है। यह रोग मेड पर उगने वाली तथा पेड़ों की छाया वाली फसल में अधिक लगता है। इस रोग के कारण दाना हल्का बनता है।

उपाय :

रोग के संक्रमन से डेन बनने की अवस्था तक 0.1 प्रतिशत प्रोपिकोनेजोल (टिल्ट 25 ईसी) का पत्तियों पर छिड़काव करें। छायादार खेत में गेहूं की बुआई न करें। उत्तर पर्वतीय क्षेत्रों में एचएस 542, वीएल 829, वीएल 907, वीएल 907, एचएस 507, एचएस 490, इत्यादी किस्मों का प्रयोग करें।

7. ध्वज कांड या फ्लैग स्मट

यह रोग उत्तरी भागों में जहां पर जमीन बलुई होती है, ज्यादा फैलता है। पंजाब तथा हरियाणा में इस प्रकार की जमीनों में यह रोग 10 प्रतिशत तक पाया जाता है। यह रोग एक कवक यूरोसिस्टिस एग्रोपाइरी से होता है तथा रोगजनक संक्रमित खेत में ही होता है।

लक्षण:

इस रोग के कारण संक्रमित पौधों की पत्तियां अधिक लम्बी, मुड़ी हुई तथा प्रारंभ में चंडी जैसे रंग की दिखाई देती है जोकि बाद में कवक बीजाणुओं के बनने से कली होकर टूट जाती है। ऐसे पौधों में बालियां नहीं बनती है।

उपाय :

2. 5 ग्राम / कि.ग्रा. बीज की दर से कार्बोक्सिन (वीटावैक्स 75 डब्ल्यू) या कर्बेडिजिम (बाविस्टीन 50 डब्ल्यूपी) से अथवा 1. 25 ग्राम / कि.ग्रा. बीज की दर से टेब्यूकोनेजोल 2 डीएस (रैकिस्ल) के साथ बीजोपचार करें। पहले साल जिन सुग्राही किस्मों में यह ध्वज कंद देखा गया हो, उनकी बुआई न करें। अन्य फसलें , जो इस कवक की अतिथेय नहीं हैं, के साथ फसल आवर्तन (क्राप रोटेशन) करें।

8. गेहूँ में पहाड़ी बंट या हिल बंट रोग

यह बीमारी प्रमुख रूप से उत्तरी पहाड़ी क्षेत्रों में पाई जाती है तथा टिलेसिया फोइटिडा एवं टिलेसिया कैरीज नामक कवकों के कारण होती है।

लक्षण:

इस रोग में रोगी बालियों में दानों की जगह कवक की कलि रंग की संरचनाए बन जाती है जो कि थ्रेशिंग के समय टूटकर कवक बीजाणुओं को स्वस्थ बीजों पर फैला देती है।

उपाय :

25 प्रतिशत कार्बोक्सिन (वीटावैक्स 75 डब्ल्यूपी) साथ बीजोपचार करें। रोग रोधी किस्मों का प्रयोग करें बुआई के लिए संक्रमित खेत से बीज न लें।

9. गेहूं में तना रतुआ या काला रतुआ रोग

इस रोग का रोग जनक पक्सीनिया ग्रैमिनिस ट्रिटिसाई नामक कवक है। यह रोग प्रारम्भ में निलगिरी तथा पलनी पहाडिय़ों से आता है तथा इसका प्रकोप दक्षिण तथा मध्य क्षेत्रों में अधिक होता है। उत्तरी क्षेत्र में यह रोग फसल पकने के समय पहुंचता है। इसलिए इसका प्रभाव नगण्य होता है।

लक्षण और उपाय:

यह रोग अक्सर 20 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक तापमान पर फैलता है। इस रोग के लक्षण तने तथा पत्तियों पर चाकलेट रंग जैसा काला हो जाता है। दक्षिण तथा मध्य क्षेत्रों की नवीनतम प्रजातियां इस रोग के लिए प्रतिरोधी होती है। इस दिशा में देश एवं विदेश में अनुसंधान जोरों से चल रहा है तथा देश में ज्यादा चिंता का विषय नहीं है।

10. गेहूं में पाद विगलन या फुट रांट रोग

यह रोग अधिक तापमान वाले प्रदेशों जैसे मध्य प्रदेश, गुजरात तथा कर्नाटक में पाया जाता है तथा सोयाबीन-गेहूं फसल चक्र में अधिक होता है। यह रोग स्क्लरोसियम रोलफसाई नामक कवक से होता है जो कि संक्रमित भूमि में पाया जाता है। इस रोग से रोगी पोधों की जड़ से ऊपर कालर वाले भाग पर सफेद कपास के आकार की कवक पैदा होती है तथा तने का भूमि से ऊपर का भाग सड़ जाता है तथा रोगी पौधा मर जाता है।

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