केले की खेती से कैसे कमाएं ज्यादा मुनाफा और जानें केले की सबसे अच्छी किस्में
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केले की कौनसी किस्म है फायदेमंद
केला भारत में एक लोकप्रिय फल है और बारह महीने इसे बहुतायत में खरीदा जाता है। देश के हर गांव और शहर में इसकी अच्छी बिक्री है। धार्मिक अनुष्ठानों में केले का सबसे अधिक उपयोग किया जाता है। केले में शर्करा एवं खनिज लवण जैसे फास्फोरस तथा कैल्शियम प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। देश में कई किसानों ने फसल चक्र में परिवर्तन करके अपने खेत में केले की खेती शुरू की है और अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं। ट्रैक्टरगुरु की इस पोस्ट में हम आपको केले की खेती से ज्यादा कमाई और उसकी फायदेमंद किस्मों के बारे में बताएंगे।
केले की फसल : जलवायु, मिट्टी और मौसम कैसा होना चाहिए
केले की खेती के लिए गर्मतर एवं समजलवायु सबसे अच्छी रहती है। अधिक बारिश वाले इलाकों में केली की खेती सबसे ज्यादा फायदेमंद रहती है। केले की फसल के लिए दोमट, मटियार, जीवांशयुक्त दोमट भूमि, जिसमें जल निकास उत्तम हो सबसे उपयुक्त मानी जाती है। भूमि का पीएच मान 6 से 7.5 के बीच होना चाहिए। खेत में केले की पौध 15 मई से 15 जुलाई के बीच लगाई जा सकती है लेकिन सबसे उपयुक्त समय जून का महीना है।
खेत में केले की फसल के लिए तैयारी
खेत में केले की फसल के लिए सबसे पहले समतल खेत को चार-पांच गहरी जुताई करके भुरभुरा बना लेना चाहिए। खेत की तैयारी करने के बाद समतल खेत में लाइनों में गड्ढे तैयार करके रोपाई की जाती है। लाइनों में गड्ढे 1.5 मीटर लंबे, 1.5 मीटर चौड़े कर खोदने चाहिए और उन्हें सूखने के लिए खुला छोड़ देना चाहिए। पौधरोपण पौधों की रोपई में तीन माह की तलवारनुमा पुतियां जिनमें घनकन्द पूर्ण विकसित हो, का प्रयोग किया जाता है, इन पुतियों की पत्तियां काटकर रोपाई करनी चाहिए। रोपाई के बाद पानी लगाना आवश्यक है।
केले की प्रमुख किस्में जिससे किसानों को मिले ज्यादा फायदा
केले की खेती से फायदा उसकी किस्मों पर निर्भर करता है। किसान भाइयों को मिट्टी, मौसम और क्षेत्र के हिसाब से केले की किस्म का चुनाव करना चाहिए। केले की प्रमुख किस्मों में ड्वार्फ कैवेंडिश, रोवस्टा, गैंड-9, मालभोग, चिनिया चम्पा, अल्पान, मुठिया/कुठिया तथा बत्तीस शामिल है।
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ड्वार्फ कैवेंडिश :
यह सबसे अधिक पैदावार देने वाली प्रचलित किस्म है। इस प्रजाति के पौधे बौने होते हैं व औसतन एक घौंद (गहर) का वजन 22-25 कि.ग्रा. होता है जिसमें 160-170 फलियां आती हैं। एक फली का वजन 150-200 ग्रा. होता है। फल पकने पर पीला एवं स्वाद में उत्तम होता है। फल पकने के बाद जल्दी खराब होने लगता है।
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रोवेस्टा :
इस किस्म का पौधा लंबाई में ड्वार्फ कैवेंडिश से ऊँचा होता है और इसकी घौंद या गहर का वजन अपेक्षाकृत अधिक और सुडौल होता है। यह किस्म प्रर्वचित्ती रोग से अधिक प्रभावित होती है।
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गैंड-9 :
इजराइली तकनीक से तैयार ग्रैंड-9 को स्थानीय सिंगापुरी किस्म से टिशू कल्चर के जरिए विकसित किया गया है।
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मालभोग :
यह जाति अपने लुभावने रंग, सुगंध एवं स्वाद के लिए जानी जाती है। इनके पौधे बड़े होते हैं। फल का आकार मध्यम और उपज औसतन होती है।
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चिनिया चम्पा :
यह भी खाने के योग्य स्वादिष्ट किस्म है जिसके पौधे बड़े होते हैं लेकिन फल छोटे आते हैं। इस किस्म को परिवार्षिक फसल के रूप में उगाया जाता है।
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अल्पान :
इस जाति के पौधे बड़े होते हैं जिसपर लम्बी घौंद लगती है। फल एक आकार छोटा होता है। फल पकने पर पीले एवं स्वादिष्ट होते हैं जिसे कुछ समय के लिये बिना खराब हुए रखा जा सकता है।
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मुठिया/कुठिया :
यह सख्त किस्म है। इसकी उपज जल के अभाव में भी औसतन अच्छी होती है। फल मध्यम आकार के होते है जिनका उपयोग कच्ची अवस्था में सब्जी हेतु एवं पकने पर खाने के लिये किया जाता है। फल एक स्वाद साधारण होता है।
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बत्तीसा :
यह किस्म सब्जी के लिए काफी प्रचलित है जिसकी घौंद लम्बी होती है. एक गहर में 250-300 तक फलियां आती हैं।
सिंचाई और खरपतवार प्रबंधन
- ग्रीष्म ऋतु के दौरान सात से दस दिन में और अक्टूबर-फरवरी तक 12 से 15 तक सिंचाई करना चाहिए
- मार्च से जून तक केले के थालों पर पुआल, गन्ने की पत्ती अथवा पॉलीथीन आदि बिछा देने से नमी सुरक्षित रहती है।
- सिंचाई की मात्रा भी आधी रह जाती है और फलों के उत्पादन और गुणवत्ता में वृद्धि होती है।
- साथ ही खेत को साफ-सुथरा रखने के लिए आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई करनी चाहिए जिससे पौधों को हवा और धूप मिलती रहे। जिससे फसल स्वस्थ रहती है और फल अच्छे आते हैं।
केले को रोगों से कैसे बचाएं
- प्रमुख रोग पर्णचित्ती या लीफ स्पॉट, गुच्छा शीर्ष या बन्ची टॉप, एन्थक्नोज एवं तनागलन हर्टराट आदि हैं।
- इनके नियंत्रण के लिए ताम्रयुक्त रासायन जैसे कॉपर आक्सीक्लोराइट 0.3 प्रतिशत या मोनोक्रोटोफॉस 1.25 मिली लीटर प्रति लीटर पानी के साथ छिडक़ाव करना चाहिए।
- केले की खेती में भूमि की ऊर्वरता के अनुसार प्रति पौधा 300 ग्राम नत्रजन, 100 ग्राम फॉस्फोरस तथा 300 ग्राम पोटाश की आवश्यकता होती है।
- फॉस्फोरस की आधी मात्रा पौधरोपण के समय तथा शेष आधी मात्रा रोपाई के बाद देनी चाहिए। नत्रजन की पूरी मात्रा पांच भागों में बांटकर अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर तथा फरवरी एवं अप्रैल में देनी चाहिए।
- एक हेक्टेयर में करीब 3 हजार 700 पुतियों की रोपाई करनी चाहिए। केले के बगल में निकलने वाली पुतियों को हटाते रहें।
- बरसात के दिनों में पेड़ों के अगल-बगल मिट्टी चढ़ाते रहें।
- सितम्बर महीने में विगलन रोग तथा अक्टूबर महीने में छीग टोका रोग के बचाव के लिए प्रोपो कोनेजॉल दवाई 1.5 एमएल प्रति लीटर पानी के हिसाब से पौधों पर छिड़ाकव करें।
कमाई और मुनाफा
इस फसल में रोपण के लगभग 12 माह बाद फूल आते हैं। इसके लगभग साढ़े 3 माह बाद घार काटने योग्य हो जाती है। जब फलियां तिकोनी न रहकर गोलाई ले लें तो इन्हें पूर्ण विकसित समझना चाहिए। एक हेक्टेयर में 60-70 टन उपज की जा सकती है जिससे आय 60-70 हजार तक मिल सकती है।
खेती के लिए उपकरण
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किसान भाइयों, कृषि के क्षेत्र में नए प्रयोग हो रहे हैं और किसान अब परंपरागत खेती को छोडक़र नए विकल्प अपना रहा है। देश में कई इलाकों के किसानों ने परंपरागत खेती को छोडक़र केले की खेती अपनाई है और मुनाफा कमा रहे हैं। ट्रैक्टरगुरु आपको समय-समय पर खेती से जुड़े नवाचारों के बारे में जानकारी देता रहेगा। इसलिए हमेशा बने रहें ट्रैक्टरगुरु के साथ।
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